गुड़िया की यादें!

बृजपुरी का मेला अपने पूरे शबाब पर था। आसमान में रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ रहे थे, बच्चों की हँसी गूंज रही थी, और दूर से आती चाट-गोलगप्पों की खुशबू हवा में घुली थी। वहीं, उस भीड़ में एक मासूम सी चार साल की बच्ची अपने माँ-पिता का हाथ थामे मुस्कुरा रही थी। उसका नाम था — गुड़िया

उसकी चोटी में नीला रिबन बंधा था, आँखों में कौतूहल और होंठों पर बेफिक्री। कभी गोलगप्पे की ओर दौड़ती, कभी झूले की ओर। उसके पिता कमलेश उसे उचकाकर झूले पर बिठाते, और माँ नीरजा हँसते हुए उसका दुपट्टा ठीक कर देतीं।

“गुड़िया, हाथ मत छोड़ना, बहुत भीड़ है!” नीरजा ने कहा।

पर भीड़ ने जैसे उस एक पल की चेतावनी को निगल लिया।

भीड़ के बीच एक धक्का, एक पुकार — और फिर सब बिखर गया।

गुड़िया का छोटा सा हाथ कमलेश के हाथ से छूट गया। आँखों में डर समा गया। वह माँ… माँ… कहती हुई किसी झूले के पीछे जाकर बैठ गई। उसके कंधे पर छोटा सा झोला था — जिसमें उसकी माँ ने उसे एक मीठा परांठा, एक छोटी चूड़ियों की डिब्बी और उसका जन्म प्रमाणपत्र एक कपड़े में बांध कर रख दिया था — बस यूं ही, ‘सावधानी’ के लिए।

पर वो ‘सावधानी’ आज बेबसी का प्रतीक बन गई थी।

गुड़िया झूले के पीछे दुबकी थी। लोग पास से गुजर रहे थे — किसी को उसके आंसू नहीं दिखे। पर उसकी मासूम आँखों में एक ही सवाल था: “माँ कहाँ गई?

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उसी मेला-मैदान के किनारे, एक लंबा, सादी सी धोती और झबरा कुर्ता पहने आदमी अपने मसाले वाले थैले के साथ गुजर रहा था। उसका नाम था रघुवीर — शहर में एक छोटा सा पारंपरिक रेस्टोरेंट चलाने वाला अनुभवी शेफ। उसे बच्चों की हँसी से नहीं, बल्कि चुप्पी से डर लगता था।
जब उसने सुना कि झूले के पीछे से कोई धीमी सिसकियों की आवाज आ रही है, तो वो रुक गया। पेड़ के तने के पीछे झाँका — और वहाँ थी वो बच्ची, थर-थर कांपती, आँखों से डर और कपड़े धूल से सने हुए।

“बिटिया… क्या नाम है तेरा?” रघुवीर ने धीरे से पूछा।

बच्ची ने कुछ नहीं कहा। बस अपने झोले को कसकर पकड़ लिया। कुछ पल बाद, उसने अपनी नन्हीं उंगली से ज़मीन पर लिखा — “गुड़िया”।

रघुवीर ने उसे पुचकारा, कुछ पानी पिलाया और उसके साथ नज़दीकी पुलिस चौकी गया। रिपोर्ट लिखवाई गई। बच्ची की उम्र सिर्फ 4 साल थी, ना पता, ना पहचान।

एक महिला पुलिसकर्मी ने उसका झोला खोला — उसमें से एक पुराना रुमाल निकला, जिसमें लिपटा था एक भीगा हुआ जन्म प्रमाणपत्र। नाम ‘गुड़िया’ पढ़ा जा सकता था, लेकिन बाकी सब धुंधला हो चुका था। रघुवीर ने कहा, “मैं इसे कुछ दिन अपने पास रख लूँ? जब तक कोई खोजने न आए?”

थानेदार बोला, “ठीक है, हम रिकॉर्ड में डाल देंगे। वैसे भी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई अभी तक। ये बच्ची तो जैसे भीड़ से गायब हो गई हो।”

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रघुवीर का जीवन बड़ा साधारण था। एक छोटा-सा रेस्टोरेंट “रसोंई घर”, जहाँ वो पारंपरिक व्यंजन बनाता — पूरी-सब्जी, हलवा, मिठाइयाँ।
गुड़िया को उसने पहले एक कोने के कमरे में खिलौने और रंग भरने की किताबों के साथ रखा। लेकिन धीरे-धीरे, वो उसके पीछे-पीछे रसोई तक पहुँचने लगी।
“ये क्या बना रहे हो?”
“ये? गुलाब जामुन। खाओगी?”
गुड़िया की आँखें चमक उठतीं।

धीरे-धीरे, वो हर मिठाई में घुलने लगी। उसकी हँसी रघुवीर के सूने जीवन में रंग भरने लगी। कुछ महीनों बाद, जब भी कोई पूछता — “ये बच्ची कौन है?” — तो रघुवीर हँस कर कहता: “मेरी बिटिया है।” गुड़िया भी अब उसे “बाबा” कहने लगी थी। हर सुबह उसके गले लगती, और रात को वही कहानी सुनती — एक रसोई वाले बाबा और उसकी प्यारी सी परी की।

गुड़िया को अपने माँ-पिता की याद धुंधली थी। कभी किसी गीत की धुन पर उसकी आँखों में आँसू आ जाते, कभी किसी पेड़ को देखकर वो पूछती — “बाबा, मुझे ऐसा पेड़ याद आता है, जैसे मेरी माँ के घर के पास था?” रघुवीर का दिल भर आता। वह जानता था, यह बच्ची कहीं न कहीं से बिछड़ी है… पर अब उसकी पूरी दुनिया बन गई थी।

वह रात को चुपचाप उसके झोले से उस गीले जन्म प्रमाणपत्र को निकाल कर देखता… सोचता — काश मैं कुछ कर पाता…

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समय की रेखा किसी को नहीं रोकती। रघुवीर की गोद में आई नन्हीं गुड़िया अब चौदह की हो चली थी। वह मासूम सी बच्ची अब लंबी चोटी, सलवार सूट और आँखों में चमक लिए एक होशियार किशोरी बन चुकी थी।

“बाबा, आज मैं रसगुल्ले बनाऊंगी,” वो रोज सुबह अपने सिर पर चुन्नी बांधते हुए कहती।

रघुवीर मुस्कराते — “अभी सीख रही हो बिटिया, जलाना मत!”

लेकिन वो जानता था, गुड़िया अब सिर्फ ‘सीख’ नहीं रही, वह ‘महसूस’ कर रही थी — खाने में स्वाद के पीछे की आत्मा को। मिठाइयाँ उसकी आत्मा का हिस्सा बन गई थीं — जैसे वो हर मिठाई में एक अधूरी सी याद को मीठा बना देना चाहती हो।

वो रसोई में हलवाई की तरह खड़ी होती, अपने छोटे हाथों से चाशनी में रसगुल्ले डालती, कभी ज़्यादा उबाल देती, तो कभी हल्का, और फिर खुद से ही कहती — “आज नहीं… लेकिन कल बिल्कुल परफेक्ट होगा!”

उसके लिए रसोई मंदिर थी।

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रघुवीर ने उसे सिखाया – हलवे में देसी घी की खुशबू कैसे बसती है, गुलाब जामुन के अंदर की नमी कैसे बनी रहे, और सबसे जरूरी — खाने में प्यार कैसे डाला जाता है!

गुड़िया जब अपने स्कूल से लौटती, तो सीधे रसोई में जाती। वहाँ आटे की महक और मसालों की गर्मी में उसे घर का एहसास होता।

“बाबा, मुझे माँ की थोड़ी सी याद आती है,” एक दिन उसने आटे में हाथ डुबोते हुए कहा।

रघुवीर कुछ नहीं बोले। बस उसका सिर सहला दिया — जैसे उनकी उंगलियों से उसे माँ की हथेलियों की नरमी महसूस हो रही हो।

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एक दिन शहर में एक बड़ी कुकिंग प्रतियोगिता का ऐलान हुआ — “युवा शेफ चैलेंज“, जिसमें देशभर से उभरते शेफ हिस्सा लेने वाले थे।

गुड़िया के स्कूल की प्रिंसिपल ने उसका नाम भेजा।

“बाबा! मेरा सेलेक्शन हो गया,” गुड़िया ने कूदते हुए कहा।

रघुवीर की आँखों में आंसू छलक आए। उसने झुक कर उसकी माथे पर चुंबन दिया — “जा मेरी लाडो, अब तेरा स्वाद इस दुनिया में फैलेगा।”

प्रतियोगिता के दिन, गुड़िया ने ‘केसर बर्फी विद गुलाब की चाशनी’ बनाई — वो रेसिपी जो रघुवीर ने कभी उसे तब दी थी, जब उसे बुखार था और कुछ खाना नहीं चाहती थी।

प्रतियोगिता के मंच पर, हजारों दर्शक, स्पॉटलाइट और कैमरों के बीच, गुड़िया शांत थी — जैसे वो किसी पूजा में लीन हो।

लेकिन जैसे ही वो अंतिम प्लेट में सजावट कर रही थी, उसका हाथ अचानक गरम चाशनी से टकरा गया। तेज जलन, तड़प और गिरती चम्मच — पूरा हॉल सन्न!

गुड़िया को अस्पताल ले जाया गया। हाथ पर गहरी जलन थी। दर्द से कराहती हुई वो सिर्फ एक नाम पुकार रही थी — “बाबा…”

रघुवीर वहीं मौजूद थे। भागते हुए अस्पताल पहुंचे। उन्होंने डॉक्टर से कहा, “मैं ही इसका सब कुछ हूँ…”

डॉक्टर ने भर्ती फॉर्म लाया। “अभिभावक का नाम?”

रघुवीर की उंगलियाँ कांप गईं।

उन्होंने पहली बार, मजबूरी में, गीले हो चुके उस पुराने जन्म प्रमाणपत्र को अपने बैग से निकाला… और डॉक्टर को दिखा दिया।

डॉक्टर बोला: “तो ये आपकी बेटी नहीं है?”

रघुवीर की आंखें भर आईं — “नहीं… लेकिन मेरे दिल की बेटी है।”

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रात को जब गुड़िया की आंख खुली, उसने रघुवीर का हाथ थामा और धीरे से पूछा:

“बाबा… क्या मैं ठीक हो जाऊंगी?”

रघुवीर ने सिर हिलाया — “हाँ बिटिया… लेकिन आज एक और बात भी बतानी है।”

गुड़िया ने उसकी आँखों में देखा। वहाँ डर नहीं था — बस आँसू थे।

“तू मेरी अपनी बेटी नहीं है। तुझे मैं मेले में मिला था… तेरा जन्म प्रमाणपत्र भीग गया था… मैंने तुझे ढूंढने की कोशिश की… लेकिन…”

वो बोलते-बोलते चुप हो गए। जैसे खुद से भी नज़र चुरा रहे हों।

गुड़िया के होठ काँपे। एक पल में पूरी ज़मीन खिसक गई उसके नीचे से।

“तो मैं… किसी की खोई हुई बच्ची हूँ?”

रघुवीर सिर झुका कर बोले — “नहीं, तू मेरी दुनिया है… पर अब तुझे तेरा सच जानने का हक है।”

गुड़िया ने तकिये में मुँह छुपा लिया और फफक पड़ी।

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अस्पताल की खिड़की से धूप की एक किरण धीरे-धीरे गुड़िया के चेहरे पर पड़ी, पर आज वो गर्माहट भी उसे सुकून नहीं दे सकी।

रघुवीर कमरे के कोने में चुपचाप बैठा था, आँखों में बेचैनी, हाथ में वही पुराना गीला जन्म प्रमाणपत्र जो अब समय के साथ और भी मुरझा गया था।

गुड़िया ने करवट ली और हल्की आवाज़ में कहा,
“बाबा… क्या कभी मेरे असली माँ-पापा ने मुझे ढूंढने की कोशिश नहीं की?”

रघुवीर का गला सूख गया। शब्द निकलने से पहले ही डूब गए।

“मैंने भी कई बार कोशिश की थी बेटा… अखबार में खबर छपवाई, पुलिस से संपर्क किया… पर हर बार जवाब में चुप्पी ही मिली।”

गुड़िया ने धीरे से आंखें बंद कर लीं, लेकिन आंसू पलकों से नीचे लुढ़क पड़े।

“मैं तुम्हारी हूँ, बाबा। पर अब मुझे जानना है… कि मैं कौन हूँ।”

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अगले दिन discharge होते ही गुड़िया ने एक छोटा सा बैग तैयार किया। उसमें सिर्फ तीन चीज़ें रखीं —

वो भीगा हुआ जन्म प्रमाणपत्र,

माँ की पहचान का झुमका,

रघुवीर के हाथों से बनी खुशबू वाली बर्फी!

रघुवीर चुपचाप दरवाज़े पर खड़े थे। उम्र की थकान उनके चेहरे पर उभर आई थी।

“बिटिया, मैं तुझे रोकना नहीं चाहता… पर एक बात कहना चाहता हूँ…”

गुड़िया ने उसकी तरफ देखा।

“क्या?”

“तेरा नाम भले ही कहीं और लिखा हो, पर मेरी दुआओं में तू हमेशा मेरी बेटी रहेगी।”

वो लिपट गई रघुवीर से — ऐसे जैसे कोई पेड़ अपनी छाया में आखिरी बार किसी को थाम रहा हो।

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गुड़िया ने सफर शुरू किया — न कोई ठिकाना, न कोई मंज़िल। बस एक तस्वीर-सी याद:

एक पेड़, जिसके नीचे माँ बैठती थी।
माँ की हँसी में झुमके की झनकार।
और किसी लोकगीत की अधूरी धुन।

वो सबसे पहले उसी बृजपुरी कस्बे गई — जहाँ मेला हुआ करता था।

वहाँ पुराने फोटो स्टूडियो में जाकर उसने पूछा,
“क्या आप 12 साल पहले के मेले की कोई तस्वीरें रखते हैं?”

एक बूढ़ा फोटोग्राफर बोला,
“बेटा, पुराने एलबम तो हैं… देख ले।”

वो तस्वीरें पलटने लगी। अचानक एक फोटो में उसने एक औरत को देखा — जिसकी चोटी में वही नीला रिबन था जैसा माँ उसके बालों में बांधती थी।

गुड़िया की धड़कन तेज हो गई।

नीचे कोने में लिखा था —
“गाँव: चंपानगर, परिवार: कमलेश – नीरजा”

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गुड़िया वहाँ से बस पकड़कर चंपानगर पहुँच गई। गाँव छोटा था, पर हर चेहरे में कुछ अपना-सा लगता।

उसे एक बुज़ुर्ग औरत मिली — जिनके हाथों में मिट्टी सनी थी।

“दादी, क्या आप नीरजा नाम की किसी महिला को जानती हैं?”

बुज़ुर्ग ने सिर उठाया, झुमके को देखा जो गुड़िया ने गले में धागे से बांध रखा था।

वो कांपते स्वर में बोलीं:
“बेटा… ये झुमका… नीरजा की बेटी के थे… जो मेला में खो गई थी…”

गुड़िया की आँखें छलक पड़ीं।

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गुड़िया एक मिट्टी के पुराने घर के सामने खड़ी थी। उसके हाथ काँप रहे थे।

दरवाज़ा खुला — एक औरत निकली, जिसकी आँखों के नीचे थकावट थी… पर जब उसने गुड़िया को देखा, उसकी पलकें रुकीं… और उसके हाथ से पानी का घड़ा छूट गया।

“तू…”

“माँ?” गुड़िया की आवाज़ काँपी।

नीरजा दौड़कर उससे लिपट गई — रोते-रोते कहती गई —
“मैंने हर दिन तुझे आवाज़ दी… हर रात तेरा नाम पुकारा… मेरी बच्ची… मेरी जान…”

कमलेश भी बाहर आ गए।
उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस एक पल के लिए बेटी को देखा — और फिर उसे इतना कसकर गले लगाया जैसे बरसों का टूटा वक़्त एक पल में बाँहों में भर लेना चाहते हों।

गुड़िया ने अपनी हथेलियों से उनके आंसू पोंछे।
उसकी आँखों से बहता प्रेम मानो कह रहा था —
“पापा… मैं वापस आ गई हूँ…”

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गुड़िया के गाँव लौटने के बाद कई हफ्ते बीत गए।

नीरजा हर सुबह उसके बालों में तेल लगातीं, और कहतीं —
“अब तू कभी कहीं नहीं जाएगी, मेरी जान…”

कमलेश उसके लिए रोज़ आम के पत्तों से तोरण बनाते थे —
मानो घर ने बेटी के लौटने का उत्सव शुरू कर दिया हो।

पर गुड़िया की आँखें अक्सर खिड़की की तरफ टिक जातीं —
जहाँ से कोई नहीं आता था…
जिस ओर शहर था… और उस शहर में बाबा।

रातों में वो नींद में बड़बड़ाती —
“बाबा… आप मुझे माफ़ करना… मैं लौट गई… पर आपको छोड़ा नहीं…”

एक दिन नीरजा ने उसका चेहरा पकड़कर पूछा —
“तू अभी भी अधूरी क्यों है बेटा?”

गुड़िया फूट-फूटकर रो पड़ी।

उसने एक चिट्ठी लिखी —

“बाबा,
आप मेरे जीवन के सबसे प्यारे हिस्से हो।
मुझे माँ-बाप मिल गए, पर आप नहीं मिले।
क्या आप एक बार… बस एक बार मुझे गले लगाने आ सकते हो?”

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कुछ दिन बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई।

कमलेश ने दरवाज़ा खोला —
सामने एक शांत चेहरा… सफेद बाल…
रघुवीर खड़े थे, आँखें भर आई थीं।

गुड़िया दौड़कर बाहर आई —
“बाबा!!”

उसने उन्हें इतनी कसकर गले लगाया
जैसे दिल के दो टुकड़े अब फिर एक हो गए हों।

नीरजा चुपचाप उनके पास आईं —
हाथ जोड़ने लगीं, पर फिर मुस्कराकर कहा —
“अब हाथ नहीं जोड़ती, बस हाथ पकड़कर कहती हूँ —
यह घर अब आपका भी है।”

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कुछ हफ्तों बाद, गाँव के कोने में एक मिठाई की दुकान खुली।
नाम था: “गुड़िया की यादें

दुकान छोटी थी, लेकिन उसकी खिड़की पर एक कविता टंगी थी:

“यहाँ मिठाई में सिर्फ स्वाद नहीं,
एक बेटी की पूरी कहानी घुली है —
माँ की याद, बाबा की सीख और जीवन की मिठास।”

रघुवीर अब वही केसर-बर्फी बनाते थे,
जिसने कभी गुड़िया को प्रतियोगिता जिताई थी।

नीरजा चाशनी का तापमान देखती थीं —
“न ज़्यादा गरम, न ज़्यादा ठंडा —
बिलकुल एक माँ की ममता की तरह…”

कमलेश ग्राहकों से मुस्कराते हुए कहते —
“ये सिर्फ मिठाई नहीं, ये कहानी है।”

और गुड़िया?

गले में बाबा का दिया स्कार्फ पहनकर,
माँ के बनाए झुमके लगाए,
दुकान के सामने खड़ी होकर कहती —
“अब मैं पूरी हूँ।”

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**गुड़िया कभी अकेली नहीं थी —
वो बस बिछड़ी थी… अपनी तीन परछाइयों से।

माँ नीरजा की गोद उसकी सुकून थी,
पिता कमलेश की बाँहें उसका सहारा,
रघुवीर बाबा की रसोई उसका सपना —
और वो खुद… उन सबकी आत्मा।

आज चारों साथ हैं —
एक मिठाई की दुकान में,
जहाँ स्वाद में रिश्ते घुलते हैं,
एक कहानी में,
जो हर दिल को छू जाती है,

और हर उस आँख में
जो कभी किसी को खोकर भी
उम्मीद देखती है…

वहाँ —
गुड़िया की यादें” बस जाती हैं।

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