जड़ से अंत – एक प्रेरणादायक हिंदी कहानी

मगध राज्य के दक्षिण छोर पर बसा था एक छोटा-सा गांव — प्रगटपुर। यह गांव अपने संतुलित जीवन, संस्कृति और नैतिक शिक्षा के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। गांव के मध्य में एक आश्रम था, जहाँ रहते थे आचार्य तत्वबोध — जो केवल शिक्षक नहीं, जीवन को जीने की कला के मार्गदर्शक थे।

आश्रम का सबसे तेजस्वी शिष्य था विभव — मेधावी, शास्त्रों में पारंगत, वाक-पटु और आत्मविश्वासी। पर भीतर कहीं, उसके ज्ञान में एक अभिमान चुपचाप उग आया था। वह चाहता था कि लोग उसे पहचानें, सराहें, और उसका आदर करें।

गुरुजी को यह बात भलीभांति समझ में आ चुकी थी।

“विभव अभी तेज है, पर अहंकार की जड़ें यदि समय रहते न हटाई गईं, तो यह ज्ञान को विष में बदल देंगी।”

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एक दिन गांव के पास एक घायल युवक मिला। शरीर पर चोटों के निशान थे, वस्त्र फटे हुए थे, पर आंखों में शांति थी। नाम था – राजवीर। गांव वालों ने उसे सहारा दिया और आचार्य तत्वबोध के आश्रम में पहुंचाया। वहां उसका इलाज हुआ। कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया।

राजवीर साधारण भाषा में बात करता, बच्चों के साथ खेलता, वृद्धों की सेवा करता, और दिन ढलते ही गांव के किनारे बैठकर सबको नीति की छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाता। उसकी बातों में गहराई थी — पर दिखावा नहीं।

विभव को यह सब देखना भारी लगने लगा।
“लोग उसकी बातों में ऐसा क्या देख रहे हैं जो वे मुझसे दूर हो रहे हैं?”
यह सोच, धीरे-धीरे एक चुभन में बदलने लगी।

आचार्य तत्वबोध अब यह साफ़ देख पा रहे थे —
“राजवीर की सरलता ने गांव को मोहित कर लिया है, और यही विभव के भीतर ईर्ष्या की चिंगारी भड़का रही है।”

उन्होंने तय कर लिया —
“अब समय आ गया है विभव को भीतर के कांटे दिखाने का, ताकि वह समय रहते स्वयं को बदल सके।”

गुरु तत्वबोध को अब विभव की आँखों में बदलती चमक साफ़ दिखने लगी थी। वह पहले सा शांत, ग्रहणशील और विनम्र नहीं रहा था। अब उसमें एक बेचैनी थी — और यह बेचैनी ज्ञान की नहीं, तुलना की थी।

गुरुजी समझ गए थे —
“विभव, जो अब भी सबसे तेज है, वह किसी और की सरलता से खुद को कमतर समझ बैठा है। यह जलन यदि अभी रोकी न गई, तो यह बुराई की जड़ बन जाएगी।”

उन्होंने यह सिखाने के लिए एक दृश्य योजना बनाई।

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रास्ते में चलते हुए गुरुजी के पाँव में एक तीखा कांटा चुभ गया। उन्होंने उसे निकाला, फिर उस झाड़ी को ध्यान से देखा। उन्होंने तुरंत एक फावड़ा मंगवाया और न केवल झाड़ी, बल्कि उसकी जड़ें भी उखाड़ दीं और जलवा दीं।

विभव चकित रह गया।

“गुरुदेव, क्या इतना करना आवश्यक था?”

गुरुजी बोले —
“कुछ चीज़ें यदि समय रहते जड़ से न हटाई जाएं, तो वे फिर से उगती हैं — और हर बार पहले से ज़्यादा तीव्रता से चुभती हैं।”

विभव तब भी इसे केवल एक पौधे से जोड़कर देख रहा था,
जबकि गुरुजी उसी क्षण उसके भीतर की बुराई की जड़ें उखाड़ने का पाठ पढ़ा रहे थे।

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सभा में प्रश्नोत्तरी चल रही थी। आचार्य तत्वबोध युवाओं से जीवन से जुड़े प्रश्न पूछ रहे थे, जब अचानक से राजवीर मंच की ओर बढ़ा। भीड़ में सन्नाटा छा गया।

“मैं केवल एक मुसाफिर नहीं हूँ… मैं मगध सम्राट के ‘विचार-विकास विभाग’ से जुड़ा एक दूत हूँ।
मुझे यहां भेजा गया था यह जानने के लिए कि आज के युवा केवल शास्त्रों के ज्ञाता हैं, या जीवन के भी।”

सभा स्तब्ध थी।

गुरुजी बोले —
“राजवीर, अब जब तुमने अपनी भूमिका स्पष्ट की है, तो तुम भी कुछ प्रश्नों के उत्तर दो।”

प्रश्न शुरू हुए — और भीतर की दुनिया खुलने लगी
प्रश्न 1: “यदि कोई तुमसे जलता हो, तो तुम क्या करोगे?”

विभव: “मैं सिद्ध करूँगा कि मैं श्रेष्ठ हूँ।”
राजवीर: “मैं उससे मित्रता करूँगा। शायद उसे प्रेम की ज़रूरत है।”

प्रश्न 2: “ज्ञान का उद्देश्य?”

विभव: “आत्मोन्नति और सिद्धि।”
राजवीर: “ज्ञान वह दीपक है जो दूसरों के अंधेरे को मिटाता है।”

प्रश्न 3: “यदि कोई तुम्हारे सामने प्रशंसा पाए और तुम्हें न मिले, तो तुम्हारा मन क्या कहता है?”

विभव: “मैं अपने प्रयास और तेज से सबको दिखा दूंगा कि असली योग्य मैं हूँ।”
राजवीर: “मैं स्वयं से पूछूंगा — क्या प्रशंसा ही मेरे मूल्य की कसौटी है?”

सभा में मौन गहराया।
विभव को पहली बार अपने जवाब भारी लगने लगे।

प्रश्न 4: “यदि कोई तुमसे कम ज्ञानी होकर भी सबका प्रिय बन जाए, तो?”

विभव: “मैं शास्त्रों और तर्क से उसका भ्रम तोड़ दूंगा।”
राजवीर: “मैं उससे सीखूंगा कि शायद ज्ञान से अधिक विनम्रता लोगों के दिल जीतती है।”

गुरु तत्वबोध ने विभव की ओर देखा —
अब वह नजरें चुरा रहा था।

प्रश्न 5: “सच्चे ज्ञान की पहचान क्या है?”

विभव: “जो हर प्रश्न का उत्तर दे सके।”
राजवीर: “जो मौन रहकर भी दूसरों के दुःख को समझ सके।”

अब सभा की नजरें विभव पर थीं।
उसके भीतर कोई टूट रहा था — और यही था शुरुआत आत्मबोध की।

अब विभव का हृदय पिघलने लगता है…
“गुरुदेव, अब समझ में आ रहा है — कि मेरा ज्ञान केवल बाहरी था।
राजवीर के उत्तरों ने मुझे मेरे ही भीतर उतार दिया।”

गुरुजी मुस्कराए —

“ज्ञान वह है जो भीतर का अभिमान जलाए, और दूसरों के मन को सहलाए।”

सभा अब भी मौन थी। प्रश्न थम चुके थे, पर मन के भीतर उथल-पुथल जारी थी।

विभव मंच पर आया, और गुरु तत्वबोध के चरणों में गिर पड़ा।

“गुरुदेव… आज समझ आया कि वह कांटा मैं खुद था… और उसकी जड़ मेरी जलन थी।”

गुरुजी बोले —

“जो कांटे बाहर चुभते हैं, उन्हें निकालना आसान होता है।
पर जो भीतर उग जाएं — ईर्ष्या, घमंड, तुलना — उनकी जड़ें आत्मा को घायल करती हैं।
उन्हें पहचानना ही आत्मज्ञान की पहली सीढ़ी है।”

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