बहुत समय पहले पहाड़ो की गोद में बसा एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ जीवन कठिन था। वहाँ के खेत बरसात के भरोसे थे, पानी दूर-दूर से लाना पड़ता था, और लोगों के चेहरों पर हर समय थकान और चिंता की छाया रहती थी। ऐसे ही दिनों में, एक सुबह जब धूप धीमे-धीमे पहाड़ियों पर उतर रही थी, एक शांत और साधारण भिक्षु वहाँ आ पहुँचे। उनका नाम था भिक्षु चैतन्य।
भिक्षु चैतन्य पीले वस्त्रों में लिपटे, हाथ में जपमाला लिए चलते थे। उनकी आँखें ऐसी शांति से भरी थीं कि जिसने भी उन्हें देखा, उसके भीतर जैसे ठहराव आ गया। वो सीधे गाँव के पुराने पीपल के पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए और धीरे-धीरे उनकी उपस्थिति पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन गई।
हर शाम वो पेड़ के नीचे बैठते, और लोग धीरे-धीरे उनके पास जमा होने लगे। वह कोई भारी-भरकम उपदेश नहीं देते थे, बस सरल शब्दों में ऐसी बातें करते जो सीधे दिल को छू जाती थीं। उनकी मुस्कान में एक सुकून था, जैसे वर्षों पुराना कोई उत्तर मिल गया हो। कभी कोई अपनी चिंता लेकर आता, तो भिक्षु बस मुस्कुराकर कहते,
“बोझ वही होता है जिसे तुम पकड़ कर रखते हो। अगर छोड़ दोगे, तो रास्ता भी दिखेगा और मन भी हल्का होगा।”
एक बार एक माँ अपने बेटे को लेकर उनके पास आई। बच्चा दिनभर मोबाइल में लगा रहता था, गुस्सा करता और बात नहीं सुनता। माँ ने शिकायत की, “स्वामी जी, मेरा बेटा अब मेरा नहीं रहा। इसे समझाइए।”
भिक्षु ने बच्चे की आँखों में बहुत ध्यान से देखा और बोले, “क्या तुम पेड़ को बिना पानी दिए फल की उम्मीद कर सकते हो? एक बच्चे का मन भी वैसा ही होता है। अगर उसमें प्यार, धैर्य और समझ की धूप न दो, तो वह भी मुरझा जाता है।”
फिर उन्होंने माँ का हाथ पकड़कर कोमलता से कहा, “हर दिन उसके पास बैठो, बिना कुछ कहे… सिर्फ उसका साथ दो। जब वह मोबाइल देख रहा हो, तब चुपचाप उसके पास बैठकर कोई प्यारी-सी किताब पढ़ो, उसकी रुचि के बारे में जानो, और उससे जुड़े रहो। कभी उसका मनपसंद चित्र बनाओ, कभी उससे कहो कि तुम उसकी पसंद पर कहानी लिखोगी। धीरे-धीरे वह तुम्हारी आँखों में वह अपनापन देखेगा जो मोबाइल की स्क्रीन नहीं दे सकती। मोबाइल छीनने से नहीं, उसका मन जीतने से बदलाव आता है।”
थोड़ी देर चुप रहकर भिक्षु मुस्कुराए और बोले, “मौन सबसे बड़ा संवाद करता है, लेकिन उसमें स्नेह की गरमी होनी चाहिए। जब बच्चे को लगेगा कि उसे टोकने वाला नहीं, समझने वाला साथ है — तब उसका मन तुम्हारी ओर झुकेगा, और फिर किसी दिन वह खुद तुम्हारा हाथ पकड़कर कहेगा — ‘माँ, आज कहानी सुनाओ… मोबाइल नहीं चाहिए।'”
उनके शब्द जैसे एक कोमल दीपक थे, जो अंधेरे मन में उजाला कर देते थे।
उन्होंने माँ से यह भी कहा, “हर दिन उसे एक कहानी सुनाओ – जिसमें बुद्धि हो, भावना हो, और वह खुद को उसमें देख सके। एक दिन वह खुद कहेगा – माँ, आज कहानी सुनाओ… मोबाइल नहीं चाहिए।”
कुछ हफ्तों बाद वही बच्चा मुस्कुराता हुआ भिक्षु के पास आया और उनके पैरों में बैठ गया। उसकी आँखों में अब शांति थी, और हाथ में एक किताब।
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एक दिन एक वृद्ध आदमी भिक्षु के पास आया। उसकी आँखों में आँसू थे, और मन में एक गहरी थकान। वह बोला, “भंते , मेरा बेटा शहर गया और कसम खा ली कि कभी वापस नहीं लौटेगा। अब वह मेरी सुध तक नहीं लेता। पहले हर सुबह मेरी चाय बनाता था, मेरे पैर दबाता था… अब सालों से उसकी आवाज़ भी नहीं सुनी। मेरा मन जैसे सूख गया है।”
भिक्षु चैतन्य ने धीरे से ज़मीन पर एक दीया रखा, उसे जलाया और बोले,
“यह दीया सिर्फ़ तेल और बाती से नहीं जलता, इसमें तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी यादें और तुम्हारा सच्चा प्रेम भी जलता है। जब मन की गहराई से किसी को याद किया जाता है, तो वह पुकार दूर तक जाती है। जो स्नेह से छोड़ा गया है, वह समय के साथ लौटता ज़रूर है — कभी किसी आहट में, कभी किसी आँसू में, और कभी लौटते क़दमों में।”
फिर उन्होंने वृद्ध के कांपते हाथ थामे और कहा,
“हर सुबह इस दीये को बेटे के नाम से जलाओ — लेकिन दिल में शिकायत नहीं, सिर्फ़ आशीर्वाद रखो। और एक चिट्ठी लिखो उसे, जिसमें न उलाहना हो, न अपेक्षा। बस उसका हाल पूछो, और अपना मन खोलो। अगर वह जवाब न भी दे, तो भी चिट्ठी भेजते रहो। जब वह पढ़ेगा, तुम्हारा स्नेह उसे भीतर से छू लेगा।”
कुछ पल चुप रहकर भिक्षु बोले,
“कभी-कभी लौटने के लिए रास्ता नहीं, आवाज़ चाहिए होती है। तुम वो आवाज़ बनो — प्रेम की, धैर्य की। बेटे के भीतर वह आवाज़ गूंजेगी, और तब वह लौटेगा, अपने आप।”
कहते हैं, कुछ ही महीनों में वह बेटा अचानक गाँव लौट आया। उसका चेहरा थका हुआ था, पर आँखों में पश्चाताप, प्यार और एक गहराई से उमड़ी हुई तड़प थी।
वह कई दिनों से पिता की चिट्ठियाँ पढ़ रहा था — जिनमें न कोई शिकवा था, न कोई माँग। हर चिट्ठी में बस एक सादगी भरा वाक्य होता: “आज तुम्हारे लिए दीया जलाया, मन से शुभकामनाएँ भेजीं।” यही शब्द धीरे-धीरे उसके व्यस्त जीवन की दीवारों में दरार डालने लगे।
शहर की चकाचौंध में जब भी वह अकेला महसूस करता, पिता की चिट्ठियाँ उसकी आत्मा में गूंजने लगतीं। उसे याद आया वो स्पर्श, वो सुबह की चाय की खुशबू, और पिता की चुप मुस्कान। एक रात जब उसने एक चिट्ठी में पढ़ा, “मैं तुम्हें दोष नहीं देता, बस हर सुबह तुम्हारे लौटने की कल्पना करता हूँ,” तो उसके भीतर कुछ पिघल गया।
उसने काम बंद किया, एक छोटा सा थैला उठाया और बिना किसी को बताए निकल पड़ा। उसके कदम अब घर की ओर थे, लेकिन दिल में पछतावे और प्रेम के अनगिनत भाव लहरें मार रहे थे।
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कुछ वर्षों बाद, एक सुबह गाँव के लोग जैसे ही जागे, तो देखा कि पीपल के नीचे भिक्षु चैतन्य नहीं थे। न कोई संकेत, न कोई विदाई — वे बस चुपचाप चले गए थे। पहले तो गाँव में सन्नाटा छा गया, जैसे कोई अपना चला गया हो। कुछ लोग रो पड़े, कुछ स्तब्ध रह गए, और कुछ को तो यक़ीन ही नहीं हुआ।
पर जैसे-जैसे दिन बीते, उनकी बातें, उनके स्पर्श, और वो शांत मुस्कान हर किसी के भीतर गूंजने लगी। अब जब कोई बच्चा उदास होता, तो माँ उसे वही कहानी सुनाती जो भिक्षु ने सिखाई थी। जब किसी किसान का मन टूटता, तो वह उसी पीपल के नीचे जाकर बैठता, जहाँ भिक्षु बैठा करते थे।
गाँववालों ने पीपल के पास एक छोटा सा स्थान बना दिया — न कोई मूर्ति, न दिखावा — बस एक दीपक जो हर शाम जलता, और एक स्लेट पर लिखा था: “जिन्होंने – दिया नहीं माँगा, वो दिलों को रोशन कर गए।”
आज भी लोग कहते हैं:
“वो चमत्कार नहीं करते थे, पर उनके शब्द जीवन बदल देते थे।”