अक्सर हमारे समाज में शिक्षा का पैमाना सिर्फ किताबों से नापा जाता है, चाहे वह गाँव हो या शहर। लेकिन कुछ रिश्ते और संस्कार ऐसे होते हैं जो बिना अक्षरों के भी जीवन में गहरी छाप छोड़ जाते हैं। यह कहानी है एक माँ और उसके बेटे की — जहाँ बेटे ने स्कूल कम और ज़िन्दगी ज़्यादा पढ़ी, और माँ ने उसे सिर्फ शब्द नहीं, संवेदनाएं और व्यवहार सिखाए।
गाँव का नाम था – रामपुरा। वहाँ की गलियों में मिट्टी की सौंधी खुशबू थी, और लोगों के दिलों में अपनेपन की गर्मी।
सीता देवी, एक विधवा महिला, खेतों में काम कर के अपने इकलौते बेटे शिवा को पाल रही थी। वो पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन ज़िन्दगी ने उसे हर पाठ सिखाया था। शिवा की परवरिश में वो हर दिन अपने अनुभव घोलती जाती थी।
शिवा के पास स्कूल की किताबें तो कम थीं, लेकिन माँ के बोलों में इतनी गहराई थी कि वो हर बात ध्यान से सुनता था।
“बेटा, पढ़ाई से बड़ा ज्ञान है – किसी को सम्मान देना।”
“जब किसी को दुःख हो, तो मदद करना ही असली विद्या है।”
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उसी गाँव में तीन और औरतें थीं — रुक्मिणी, सुमित्रा और पार्वती। उनके बेटे शहरों में पढ़ाई कर रहे थे।
एक दिन कुएं पर चारों महिलाएँ पानी भर रही थीं। चर्चा शुरू हुई – किसका बेटा क्या कर रहा है?
रुक्मिणी बोली, “मेरा बेटा काशी से संस्कृत पढ़कर आया है, बड़े-बड़े श्लोक मुँहज़बानी सुना देता है।”
सुमित्रा बोली, “मेरा बेटा तो ज्योतिषाचार्य है, भविष्य बताता है, लोग उसे गुरू मानते हैं।”
पार्वती ने कहा, “मेरा बेटा दूसरे गाँव में मास्टर है, सौ-सौ बच्चों को पढ़ाता है।”
सीता चुप रही।
जब सबने ज़ोर दिया, तो वह मुस्कुराकर बोली —
“मेरा बेटा ज़्यादा पढ़ा नहीं, लेकिन खेत में मेहनत करता है, और हर बुजुर्ग को देख कर हाथ जोड़ता है।”
बाकी औरतें मुस्कुरा दीं। जैसे कह रही हों – ये भी कोई गर्व की बात है?
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कुछ दिन बाद गाँव में एक मेला लगा। सभी माँएँ अपने बेटों के साथ वहाँ जा रही थीं। रास्ते में सबसे पहले रुक्मिणी का बेटा आया। रुक्मिणी के हाथों में भारी सामान था, लेकिन उसका बेटा सिर हिलाकर आगे बढ़ गया।
फिर सुमित्रा और पार्वती के बेटे मिले — सुमित्रा चलते-चलते एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ीं, पर उनका बेटा बस एक नजर देख कर बिना कोई भाव प्रकट किए आगे बढ़ गया, जैसे उसे विश्वास था कि माँ खुद ही उठ जाएंगी। उसकी आँखों में न चिंता थी, न सहारा देने की कोशिश। और पार्वती का बेटा भी सिर्फ दूर से हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ चुपचाप आगे बढ़ गया।
तभी दूर से मिट्टी की पगडंडी पर धूल उड़ती हुई दिखी, और उसी में से शिवा आता दिखाई दिया।
उसने यह सब देखा — माँ की पीड़ा, बेटों की बेरुखी — और उसका मन बेचैन हो उठा। बिना कुछ कहे वह तेज़ी से दौड़ा, जैसे उसका दिल कह रहा हो कि अब देर नहीं करनी चाहिए। पहले उसने रुक्मिणी के हाथ से सामान लिया और उनके लिए छाया में बैठने की व्यवस्था की। फिर वह सुमित्रा के पास गया, उन्हें सहारा देकर उठाया और उनका पाँव देखा। पार्वती पास ही खड़ी थीं, उनका चेहरा उतरा हुआ था और माथे पर पसीना। शिवा ने उनके लिए पानी लाकर दिया और उनसे कहा — “आप बैठिए माई, मैं पंखा कर देता हूँ।” उसने पास की सूखी घास पर उन्हें बैठाया और अपना रूमाल झलते हुए उनका हालचाल पूछा।
इसके बाद वह अपनी माँ सीता के पास पहुँचा।
उसने कहा, “माँ, आपको मुझे बता देना चाहिए था… मैं ख़ुद आ जाता। आप अकेली क्यों चली आईं? इतनी धूप में चलना ठीक नहीं।”
उसने माँ का पसीने से भीगा चेहरा देखा, उनके माथे से चुन्नी सरक रही थी। उसने तुरंत अपनी रूमाल से उनका चेहरा पोंछा, उनका दुपट्टा ठीक किया और धीरे से माँ का हाथ थामकर कहा —
“आइए माँ, थोड़ी देर छाया में बैठिए।”
फिर वह माँ को एक नीम के पेड़ के नीचे ले गया, अपने हाथों से उनके लिए पानी निकाला और पंखा झलने लगा। धीरे-धीरे उन्हें लेकर बाकी सभी महिलाओं के पास पहुँचा।
बाकी तीनों महिलाएँ अब चुप नहीं थीं — उनके चेहरों पर चुप्पी से भरी स्वीकृति थी। उस पल, शब्द नहीं, व्यवहार बोल रहा था।
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ऐसा था शिवा और ऐसे थे उसके अच्छे संस्कार! एक दिन गाँव में एक बूढ़ा फकीर बीमार पड़ा था। उसकी सेवा करने के लिए कोई भी नहीं था । गरीब अकेला फ़क़ीर जो ठहरा! जैसे ही शिवा को उसके बारे में पता चला वह दौड़कर उस फ़क़ीर की झोंपड़ी में पहुंचा। उसे अपने घर ले जाकर खाना खिलाया, उसके कपड़े बदले और उसे ठीक होने तक माँ के पास रखवाया।
फकीर जाते-जाते शिवा से बोला —
“बेटा, तेरे पास कोई डिग्री नहीं, लेकिन तेरे जैसा दिल हर पढ़े-लिखे के पास नहीं होता।”
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एक बार स्कूल में बच्चों को बुलाया गया कि वे अपने माता-पिता के काम बताएं। कई बच्चों ने कहा – डॉक्टर, इंजीनियर, वकील।
शिवा ने कहा – “मेरी माँ खेतों में काम करती हैं, लेकिन उन्होंने मुझे ये सिखाया कि किसी की आँखों में आँसू दिख जाए, तो अपने काम से पहले उन्हें संभालो।”
कक्षा में सन्नाटा छा गया। शिक्षिका की आँखें भी नम हो गईं।
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धीरे धीरे शिवा बड़ा हो गया । अब वो और भी ज्यादा मेहनत करता और लोगों के काम भी आता।
गाँव में चुनाव होने वाले थे। सीता देवी मन ही मन चाहती थीं कि शिवा भी चुनाव लड़े — वो जानती थीं कि उसका दिल साफ़ है, और उसमें लोगों की निःस्वार्थ सेवा करने की क्षमता है। लेकिन शिवा राजनीति से दूर ही रहता था। उसी दौरान एक युवक पंचायत चुनाव लड़ रहा था — पढ़ा-लिखा, पर अहंकार से भरा हुआ। उसने शिवा से कहा —
“तुम जैसे अनपढ़ लोग क्या जानो, समाज कैसे चलता है? पढ़े-लिखों को आगे आने दो।”
शिवा ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ मुस्कुरा दिया।
लेकिन अगले दिन गाँव में एक बूढ़े दादा जी बीमार पड़ गए। डॉक्टर नहीं था, गाड़ी नहीं थी। सभी परेशान थे।
शिवा उन्हें अपनी पीठ पर उठाकर 3 किलोमीटर दूर शहर के अस्पताल ले गया।
जब वह लौटा, तो लोगों की नज़रें बदल चुकी थीं। उसी दिन गाँव के बुज़ुर्गों ने कहा —
“हमें नेता नहीं, ऐसा बेटा चाहिए जो बिना बोले काम करे।”
लोगों ने सर्वसम्मति से शिवा को ग्रामसभा का प्रतिनिधि बना दिया।
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एक दिन शिवा की माँ बीमार हो गईं। शिवा ने पूरी सेवा की, जैसे उन्होंने उसे बचपन में संभाला था।
माँ की आँखें भर आईं। उन्होंने कहा —
“बेटा, तुझे तो मैंने सिर्फ इंसान बनना सिखाया था… तू तो मुझसे भी बड़ा बन गया।”
शिवा ने मुस्कुराकर कहा —
“माँ, जो मैं हूँ, वो सब तुमसे ही सीखा है। तुम्हारी हर बात मेरे लिए किताब से बढ़कर थी।”
ये कहानी हमें सिखाती है कि – “ज्ञान वह नहीं जो ज़बान पर हो, ज्ञान वह है जो व्यवहार में झलकता है।”
प्रेरणादायक बनने के लिए डिग्री नहीं, दिल चाहिए। व्यवहार और संस्कार ही किसी इंसान को महान बनाते हैं।