अदृश्य आँसुओं का जादू!

एक छोटे से गाँव चंपावती में एक लड़की रहती थी — नाम था तृषा। नन्हीं सी, प्यारी सी, उसकी मुस्कान सूरज की पहली किरण जैसी थी। तृषा के बारे में गाँव में सब कहते थे — “ये बच्ची तो भगवान का रूप है, हमेशा हँसती रहती है।”

कभी किसी ने उसके चेहरे पर उदासी नहीं देखी थी। दुख तो जैसे उसके पास फटकता भी नहीं था। खेलना, कूदना, सबको गले लगाना और सबसे मीठी बातें करना — यही उसका स्वभाव था।

पर कोई नहीं जानता था कि तृषा में एक अनोखी शक्ति छुपी थी — जैसे ही वो कभी रोती, उसके आँसू जो भी बात सोचते समय गिरते, वो बात सच हो जाती।
लेकिन… उसे कभी रोना आया ही नहीं, तो ये बात किसी को पता भी न चली।

एक दिन कुछ बदला…

सालों बाद जब तृषा 13 साल की हुई, उसके पापा शहर काम पर गए और लौटे ही नहीं। माँ की आँखें सूख चुकी थीं, घर की हालत बिगड़ने लगी थी। गाँव वाले कहते, “इतनी हँसी-खुशी लड़की है, पर अब शायद इसका नसीब ही बदल गया है।”

तृषा अब भी मुस्कुराती थी — पर उसकी हँसी अब अधूरी लगती।

एक रात, माँ की तबीयत अचानक बिगड़ी। घर में दवाइयाँ नहीं थीं। तृषा घबरा गई, लेकिन माँ को कुछ कह भी नहीं सकी। वो चुपचाप मंदिर गई — अंधेरे में अकेली, छतरी के बिना बारिश में भीगती हुई।

वहीं खड़े-खड़े, उसके जीवन का पहला आँसू गिरा।

वो बुदबुदाई, “काश… पापा अभी यहीं होते… माँ ठीक हो जातीं…”

और जैसे ही वो आँसू ज़मीन पर गिरा, एक हल्की सी बिजली सी चमकी, फिर सब शांत हो गया।

जादू हुआ? या चमत्कार?

अगली सुबह किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खोला तो सामने वही इंसान खड़ा था, जिसे तृषा ने सालों से नहीं देखा था — उसके पापा

उनके चेहरे पर शर्मिंदगी और पश्चाताप था। “मुझे सब याद आ गया… जैसे कोई सपना टूट गया हो। मैं तुम्हारे पास लौट आया, तृषा,” उन्होंने कहा।

पीछे एक आदमी और खड़ा था — गाँव का डाक्टर। वो बिना बुलाए आया था, क्योंकि रात को उसे अचानक लगा कि उसे तृषा की माँ को देखना चाहिए।

माँ की तबीयत जल्दी ठीक होने लगी।

गाँव में सब हक्के-बक्के थे।

तृषा सोच में पड़ गई —
“क्या ये मेरे आँसू का असर था?”

पर ये बात उसने किसी को नहीं बताई।

पापा की वापसी और माँ की तबीयत ठीक होना तृषा के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। लेकिन कहीं न कहीं वो इसे संयोग मान रही थी।

“शायद ऐसा ही होना था…”
उसने खुद को समझाया।

“मगर फिर कुछ घटनाएँ ऐसी घटीं, जिन्होंने धीरे-धीरे तृषा के मन में यह यक़ीन जगाना शुरू किया कि उसके भीतर कुछ ऐसा है जो सामान्य नहीं… कुछ अदृश्य, कुछ चमत्कारी।”

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तृषा की सबसे अच्छी दोस्त थी — रिंकी। बहुत होशियार, पर गरीब। उसके पापा मजदूर थे और स्कूल की फीस भरना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था। एक दिन पता चला कि रिंकी का नाम स्कूल से काटा जा रहा है, क्योंकि समय पर फीस नहीं भरी गई।

रिंकी ने रोते हुए कहा, “तृषा, अब मैं स्कूल नहीं आऊंगी। शायद मेरी किस्मत में पढ़ाई नहीं थी…”

तृषा उसे गले लगा कर घर चली आई। उस रात वो बहुत उदास थी। पहली बार, वो खुद को रोक नहीं पाई और आँसू गिर पड़े।

उसने बस इतना सोचा — “काश रिंकी स्कूल जा सके… उसे उसका हक मिल जाए…”

अगली सुबह स्कूल पहुंची तो शोर मचा था — “एक बड़ी कंपनी ने गाँव के तीन गरीब बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्च उठाने की घोषणा की है, और उनमें रिंकी का नाम सबसे ऊपर है!”

तृषा वहीं खड़ी रह गई… जैसे सब थम गया हो।

“ये… कल रात…”

उसके दिल में कुछ काँप गया।

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गाँव में सावन का मेला लगा था। हर तरफ रौनक थी — चूड़ी की दुकानें, गोलगप्पे, झूले, बच्चों की हँसी…

पर उस भीड़ में एक चेहरा था, जो सबसे अलग दिख रहा था — मयंक, आठ साल का दुबला-पतला लड़का, जिसकी आँखें झूले की रफ्तार से भी ज्यादा खाली थीं।

तृषा ने उसे देखा — मेले के कोने में, लोहे के झूले पर अकेला बैठा, अपने जूते के फीते को बार-बार बांधने का नाटक करते हुए। उसके पास कोई नहीं था। उसके कपड़े हल्के से गंदे थे, और आँखें ऐसी — जैसे रोते-रोते थक गई हों।

तृषा धीरे-धीरे उसके पास पहुँची और बोली,
“तू झूला क्यों नहीं ले रहा? देख न कितना मज़ा आ रहा सबको।”

मयंक ने उसकी तरफ देखा। उसकी पलकें भारी थीं, और आवाज़ टूटी हुई —
“माँ होती तो… लेती। पर अब कौन ले जाएगा?”

इतना कहकर उसने सिर झुका लिया। तृषा कुछ पल चुप रही। फिर उसके पास बैठते हुए धीरे से पूछा,
“तुम्हें माँ की याद बहुत आती है?”

मयंक ने सिर्फ एक बार उसकी आँखों में देखा, और एक नज़र में ही तृषा समझ गई — इस बच्चे का दिल रोज़ टूटा है।

मयंक बोला नहीं, बस सर हिलाया। फिर धीरे-धीरे कहा,
“रात में चुपचाप रोता हूँ… पापा किसी से कुछ नहीं कहते। पर वो अब मुस्कुराते भी नहीं।”

तृषा के सीने में कुछ चुभा।

मयंक की माँ, घर के झगड़े से टूटकर चली गई थी — कहते हैं, बिना कुछ बताए। पर माँ की गैरमौजूदगी ने मयंक से उसका बचपन भी छीन लिया था।

उस रात तृषा बहुत बेचैन थी। उसका दिल भारी था।

वो खिड़की के पास बैठी रही, चाँद को निहारती रही… और जब उसकी आँख से पहला आँसू गिरा, उसने आँख बंद करके बस एक बात बुदबुदाई —

“भगवान… अगर मेरी कोई बात कभी मानी है, तो मयंक की माँ को लौटा दो। किसी बच्चे का दिल इतना अकेला नहीं होना चाहिए…”

उसके आँसू गालों पर बहते रहे… और आसमान में चाँद जैसे हल्का सा धुंधला हो गया।

सुबह का चमत्कार… या दिल की पुकार?

अगली सुबह तृषा की नींद दरवाज़े की आवाज़ से टूटी। बाहर शोर था। लोग इकट्ठा थे मयंक के घर के पास।

उसने दौड़कर देखा — मयंक की माँ दरवाज़े पर खड़ी थी, रोते हुए अपने बेटे को गले लगा रही थी। मयंक की आँखों से आँसू बह रहे थे, पर इस बार वो आँसू दर्द के नहीं, सुकून के थे।

उसकी माँ कह रही थी,“रात को सपना आया… मयंक मुझे पुकार रहा था, कह रहा था, ‘माँ वापस आ जाओ, मैं बहुत अकेला हूँ।’ मैं और नहीं रह सकी…”

तृषा वहीं खड़ी रह गई — उसकी आँखों में हैरानी थी, दिल में कंपन।

अब ये सिर्फ संयोग नहीं था।

ये तीसरी बार था… तीसरी बार जब उसने रोते हुए दिल से कुछ माँगा, और वो हकीकत बन गया।

अब आँसू से डर लगने लगा था।

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एक शाम गाँव की पगडंडी पर चलते हुए तृषा ने देखा — एक बूढ़ी अम्मा गिर गई हैं। सब लोग मदद को भागे, पर तृषा वहीं खड़ी रह गई। उसका मन अंदर ही अंदर तड़प उठा।

“अगर मेरे आँसू निकल गए… और मैंने डर के मारे कुछ सोच लिया… तो?”

वो अब अपने ही जज़्बातों को रोकने लगी थी।

उस रात तृषा की माँ ने पूछा, “बिटिया, तू अब चुप रहने लगी है। पहले तो तू हर बात पर बोलती थी, हँसती थी… अब तू चुप क्यों रहती है?”

तृषा चुप रही। आँखें भर आईं पर उसने झट पलके बंद कर लीं।

कुछ पल बाद माँ के गले लगते हुए धीरे से बोली — “माँ… अगर किसी के रोने से सच में कुछ बदल जाए, तो क्या वो रोना वरदान है या बोझ?”

माँ मुस्कुराई — “बेटा, अगर तेरे आँसू किसी का भला करते हैं, तो वो बोझ नहीं, भगवान की दी हुई सबसे बड़ी शक्ति है। पर हाँ, हर शक्ति के साथ समझदारी भी चाहिए… यही असली इंसानियत है।”

तृषा ने पहली बार किसी को थोड़ा-थोड़ा अपना डर बताया… लेकिन पूरा सच अब भी छुपा लिया।

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कुछ दिनों बाद गाँव में बाढ़ जैसी स्थिति बन गई। बारिश तीन दिन से बंद नहीं हुई थी। एक पुराना पुल बहने की कगार पर था। कई लोग डरे हुए थे।

तृषा खिड़की पर बैठी थी — मन में डर, आँखों में ग़ुस्सा… क्योंकि गाँव के कुछ लड़कों ने पुल के किनारे खेलते हुए एक छोटे बच्चे को धक्का दे दिया था।

वो चिल्ला नहीं सकी… पर उसके भीतर ग़ुस्सा फूटा।

उसकी आँखों से आँसू बह निकले। उसने बड़बड़ाते हुए सोचा — “काश वो लड़के समझते कि दूसरों का दर्द क्या होता है… और कभी वापस उस डर को महसूस करें…”

और उसी रात, खबर आई —

वही लड़के पुल से फिसलकर पानी में गिर गए।

हालांकि उन्हें समय रहते बचा लिया गया, लेकिन दो दिन तक वे बेहोश रहे। डॉक्टर ने कहा, “इन्हें कोई बहुत गहरा डर लगा है…”

अब तृषा टूट चुकी थी – “ये क्या कर दिया मैंने?”

उसने आईने में खुद को देखा — “मैं तो बस रोई थी… पर अब मेरा दिल डर से भर गया है। क्या मैं किसी का बुरा भी कर सकती हूँ?”

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गाँव में कई दिनों से मौसम जैसे थम ही गया था। हर सुबह अंधेरे में डूबी मिलती, बादल आसमान पर ऐसे मंडरा रहे थे जैसे किसी अनकहे डर ने उन्हें जकड़ लिया हो।

फ़सलें गलने लगी थीं, मिट्टी की गंध अब सड़ी हुई थी, और रास्ते — कहीं दिखाई ही नहीं दे रहे थे, बस कीचड़, पानी और अनिश्चितता।

कुएँ का पानी भी अब पीने लायक नहीं रहा था — जैसे ज़मीन तक ने हार मान ली हो।

गाँव के लोग चिंतित थे। कोई बोला, “ये तो लग रहा है कि बारिश अब बर्बादी बनकर ही रुकेगी…”

इन्हीं सब के बीच तृषा की माँ, जिनकी तबीयत कुछ समय पहले ही संभली थी, अब फिर से बेहद कमजोर हो गईं। बुखार इतना तेज़ था कि उनका शरीर काँपने लगा था।

तृषा दवा लाने दौड़ना चाहती थी — पर गाँव में कोई दवा की दुकान ही नहीं थी, और शहर तक जाने वाली कच्ची सड़कें अब मिट्टी के ढेर में बदल चुकी थीं।

वो माँ के पास बैठी, उनका माथा सहला रही थी — पर दिल में एक और तूफ़ान उठ रहा था।

“अब क्या करूँ?”

“रो नहीं सकती… डर में कुछ गलत सोच लिया तो कुछ और अनहोनी न हो जाए।”

हर बीतता दिन उसके भीतर के डर को और गहरा कर रहा था।

और हर पल वो अपने आँसुओं को पलकों के पीछे बंद करने की कोशिश कर रही थी।

उस रात तृषा माँ के सिरहाने बैठी रही।

माँ की साँसे अनियमित थीं, उनका माथा जल रहा था।

कमरे की दीवारें चुप थीं, जैसे कोई कुछ कहना चाहता हो… पर शब्द नहीं थे।

तृषा की आँखें नम थीं, लेकिन वो बार-बार खुद को रोक रही थी।

“नहीं… मैं नहीं रो सकती। अगर इस बार भी कोई गलत सोच आ गई तो… क्या पता क्या हो जाए…!”

थकी हुई आँखें आखिरकार नींद में डूब गईं —
और तभी आया वो सपना…
जिसने उसकी ज़िंदगी का रास्ता बदल दिया।

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वो एक खाली मैदान में खड़ी थी। चारों ओर नीला उजाला फैला था।
सामने एक झील थी — बिलकुल शांत, बिलकुल पारदर्शी।

झील में उसने झाँककर देखा — और वहाँ दो तृषाएँ थीं।

एक के चेहरे पर डर था, पलकों पर रुके आँसू।

दूसरी की आँखों में आँसू बह रहे थे — पर वो शांत थी, जैसे उसका हर आँसू किसी प्रार्थना की तरह गिर रहा हो।

और फिर झील से एक आवाज़ आई —
नरम, गहरी, समझदार।

“बिटिया, तू अपने आँसुओं से डरती क्यों है?”

“तेरा जादू तेरे आँसुओं में नहीं… तेरे इरादों में है।
आँसू बहेंगे — ये तो स्वाभाविक है।
पर तू यह तय कर सकती है कि उनके साथ क्या बहने दे —
ग़ुस्सा… या करुणा?”

“तू चाहती है कि तेरे आँसू कभी किसी को नुक़सान न दें?
तो फिर हर बार जब तू रोए,
किसी के लिए दुआ लेकर रोना…
किसी की भलाई सोचकर रोना…
तब तेरे आँसू सिर्फ आँसू नहीं रहेंगे —
वो बनेंगे आशीर्वाद।”

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नींद खुली तो तृषा का चेहरा भीग चुका था।
लेकिन इस बार वो घबराई नहीं —
बल्कि धीरे से माँ का हाथ थामकर बोली —

“अब मैं डरूँगी नहीं।
अब मेरे आँसू, मेरी सोच… सिर्फ अच्छे के लिए होंगे।”

उसने आँखें बंद कीं और पहली बार,
पूरे विश्वास के साथ रोई — पर अबकी बार किसी डर के साथ नहीं,
बल्कि माँ के लिए दुआ लेकर।

“हे ईश्वर,
मेरे आँसू को अपना माध्यम बना लो।
मेरी माँ को ठीक कर दो,
गाँव को राहत दो,
और मेरी सोच को सच्ची करुणा से भर दो।”

चमत्कार… अब डर के साथ नहीं था

सुबह… सूरज की पहली किरण खिड़की से झाँकी।
बारिश रुक चुकी थी। बाहर चिड़ियों की आवाज़ आई — जैसे लंबे समय बाद जीवन लौट आया हो।

माँ की आँख खुली।

उन्होंने तृषा की ओर देखा, हल्के से मुस्कुराईं और कहा —

“तेरे आँसू… मुझे जैसे किसी देवी ने छुआ हो।
अब मैं ठीक महसूस कर रही हूँ।”

गाँव में लोग कहने लगे —
“तृषा के रोने से राहत आई है…”
पर तृषा ने सिर झुका लिया —
अब उसे पता था, जादू कहाँ था।

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अब तृषा ने अपने आँसुओं से डरना छोड़ दिया था।
उसने गाँव के बच्चों को सिखाया —
कि रोना कमजोरी नहीं, सबसे बड़ा भाव है।

उसने एक छोटी सी पाठशाला खोली —
जहाँ न केवल पढ़ाई होती,
बल्कि बच्चों को दिल से महसूस करना, प्रार्थना करना
और दूसरों की भावनाओं को समझना सिखाया जाता।

लोग कहते थे —
“तृषा अब भी जादू करती है…”
पर वो कहती:

“मैं कुछ नहीं करती…
बस अपने आँसू में अब सिर्फ प्रेम और दुआ रखती हूँ।
बाकी सब… अपने आप होता है।”

“जादू वही है, जो ग़ुस्से में भी दया बनाए रखे।
आँसू वही अनमोल हैं, जो किसी और की पीड़ा को हल्का कर दें।”

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