बहुत समय पहले की बात है। विंध्याचल पर्वतों की तलहटी में बसा एक सुंदर गाँव था—धरणीपुर। यहाँ मिट्टी सोने जैसी उपजाऊ थी, लेकिन लोगों के मन में संतोष की बजाय लालच की फसल उग आई थी। हर कोई चाहता था जल्दी से अमीर बन जाना—चाहे मेहनत से, चाहे किसी और रास्ते से।
आरव नाम का एक दुबला-पतला किशोर भी यहीं रहता था। उसकी काया साधारण थी, लेकिन उसकी आँखों में ज्ञान की ऐसी चमक थी कि जो भी देखता, अनायास ही मोहित हो जाता।
आरव के माता-पिता बचपन में ही चल बसे थे। उसका पालन पोषण उसके दादा जी ने किया, जिनकी सबसे बड़ी सीख यही थी—
“बेटा, धन की उम्र सीमित होती है, पर ज्ञान अमर होता है। अगर जीवन में सम्मान पाना हो, तो बुद्धि को ही सच्चा गहना समझो।”
आरव ने अपने दादा की इन बातों को हृदय में उतार लिया था। हर सुबह वह गाँव के प्राचीन शिव मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाता, जहाँ पुजारी जी ने एक छोटी सी पाठशाला चला रखी थी।
वहीं बैठकर वह ताड़पत्रों और पुराने ग्रंथों से अक्षर जोड़ना सीखता। धीरे-धीरे उसने इतना ज्ञान अर्जित कर लिया कि गाँव में लोग उसे विद्वान बालक कहने लगे।
पर कुछ लोग थे जो उसकी विद्या का मजाक भी उड़ाते। गाँव के कुछ नौजवान कहते—
“किताबें पढ़कर कोई पेट नहीं पाल सकता। असली कमाई तो शहर जाकर ही होती है!”
आरव यह सब सुनकर मुस्कुराता और चुपचाप अपने काम में लग जाता।
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एक दिन गाँव में हलचल मची।
दोपहर को गाँव में एक विशाल रथ आकर रुका। रथ की छत पर नीले रंग का झंडा लहरा रहा था। लोग दौड़कर देखने आए। रथ से उतरा एक गौरवर्ण व्यक्ति, जिसके वस्त्र रेशमी थे। उसकी चाल में ऐंठन थी और आवाज़ में अभिमान। वह श्रीमान राधेश्याम नाम का बड़ा व्यापारी था।
उसने ऊँचे स्वर में कहा—
“सुनो, गाँववासियो! मुझे अपने व्यवसाय के लिए कुछ युवा चाहिए। जो मेरे साथ चलेंगे, मैं उन्हें काम भी सिखाऊंगा और धन भी दूंगा। एक साल में ही उनकी किस्मत बदल जाएगी!”
यह सुनते ही गाँव के युवकों की आँखों में चमक आ गई। हर कोई दौड़ पड़ा अपनी झोली बाँधने।
राधेश्याम ने आगे कहा—
“कल सुबह सूर्योदय से पहले रवाना होंगे। सोच लो—ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता।”
आरव वहीं खड़ा सब देख रहा था। तभी उसका मित्र देवेश उसके पास आकर बोला—
“क्यों आरव? तू भी चलेगा न हमारे साथ? आखिर पैसा ही सब कुछ है!”
आरव ने मुस्कुराकर उत्तर दिया—
“धन तो जरूरी है, लेकिन अधूरी समझ से जो धन मिलता है, वह कई बार दुख ही देता है। मैं अभी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं।”
देवेश हँस पड़ा—
“अरे पंडित! ज्ञान की रोटियाँ तुझे कोई खिलाएगा? देख लेना, हम सब अमीर बनकर लौटेंगे और तू यूं ही मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा रहेगा।”
आरव ने कोई उत्तर नहीं दिया।
अगले दिन रथ रवाना हो गया। दर्जनों युवक उसमें बैठकर शहर की ओर निकल पड़े।
आरव ने उसी दिन सुबह उठकर अपनी पढ़ाई और साधना फिर से शुरू कर दी।
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मंदिर के पुजारी, जिनका नाम भैरवनाथ था, ने उसे कई दुर्लभ ताड़पत्र दिखाए। उन्होंने कहा—
“बेटा, इन शास्त्रों में ऐसी बातें हैं, जिन्हें जानकर तू अपनी और दूसरों की भी राह आसान कर सकता है।”
आरव ने श्रद्धा से ताड़पत्र हाथ में लिए और पढ़ना शुरू किया।
रोज़ सूरज उगने से पहले पढ़ाई, दिन में खेतों में थोड़ी मदद और रात को दीपक के उजाले में फिर पढ़ाई। यह क्रम चलता रहा।
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तीन साल बीत गए।
देवेश और बाकी युवक शहर की चकाचौंध में उलझ गए। किसी ने थोड़े बहुत पैसे कमाए लेकिन आराम और आलस में खो दिए। कुछ ने गलत रास्ते पकड़े और लौटे ही नहीं। कुछ ने बीमारियां पाल लीं।
गाँव में अब केवल किस्से ही आते थे कि फलां युवक ने क्या किया, कैसे धोखा खाया।
इधर आरव की विद्या बढ़ती गई। पुजारी भैरवनाथ ने अपनी अंतिम सांसों में उसे एक आशीर्वाद दिया—
“बेटा, तुझे जीवन में ऐसी जिम्मेदारी मिलेगी जहाँ तेरी बुद्धि की असली परीक्षा होगी। कभी भी अपने ज्ञान का घमंड मत करना।”
आरव ने उनकी चिता को प्रणाम किया और वचन लिया कि वह अपनी विद्या को सेवा में लगाएगा।
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एक दिन खबर आयी के नगर के राजा ने ज्ञान और बुद्धिमत्ता पर आधारित एक प्रतियोगिता आयोजित की है। जो भी व्यक्ति उस प्रतियोगिता को जीतेगा, उसे उचित पुरस्कार दिया जायेगा और साथ ही राज्यसभा में ऊँचे पद पर नियुक्त भी किया जायेगा।
यह सुनकर गाँव और आस पास के नगरों के युवकों में हलचल मच गयी।
कई युवा इस अवसर का लाभ उठाना चाहते थे लेकिन जैसा की अपेक्षित था, यह परीक्षा आसान नहीं होने वाली थी।
यह तीन दिनों की कठिन परीक्षा थी। इस परीक्षा में कई मुश्किल प्रश्न पूछे जाने वाले थे।
आरव ने भी इस प्रतियोगिता में भाग लेने का सोचा।
निश्चित दिन पर वह राजा की सभा में उपस्थित हुआ वह और भी कई सारे युवक अपनी किस्मत आजमाने के लिए आये थे।
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पहले दिन राजा के मुख्य मंत्री ने सभा में गूंजती आवाज़ में कहा—
“मान लो तुम्हारे पास दो नावें हैं।
पहली नाव हल्की, तेज़ और सुंदर है, पर किसी ने कभी उसमें यात्रा नहीं की।
दूसरी नाव पुरानी है, थोड़ी भारी, और धीरे चलती है, लेकिन कई लोग उसे पार करने में सफल हो चुके हैं।
तुम्हें नदी पार करनी है और समय भी कम है।
क्या तुम पहली नाव का जोखिम लोगे या दूसरी नाव का भरोसा?”
सभा में सन्नाटा छा गया।
कुछ युवकों ने तुरंत कहा—
“पहली नाव! जल्दी पहुँचना ज़रूरी है।”
दूसरे बोले—
“दूसरी नाव! भरोसा सबसे बड़ा।”
आरव ने कुछ क्षण आँखे मूँदकर सोचा, फिर बोला—
“महाराज, मैं पहले उन लोगों से पूछूंगा जिन्होंने दूसरी नाव चलाई है—कि उसमें कोई अदृश्य कमी तो नहीं। और फिर पहली नाव को ध्यान से परखूंगा।
अगर पहली नाव में असल में कोई दोष न मिले, तो मैं उसे चुनूंगा।
क्योंकि केवल पुराने प्रयोग पर भरोसा करना भी मूर्खता है, और अनदेखी सुंदरता पर विश्वास करना भी।
सत्य जानने से ही सही निर्णय लिया जाता है।”
राजा ने प्रसन्न होकर सिर हिलाया—
“अच्छा उत्तर—संतुलन और जाँच के साथ लिया गया निर्णय।”
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दूसरे मंत्री ने कागज़ पर एक चित्र दिखाया—
चित्र में एक पेड़ था, जिसमें दो डालियाँ।
“देखो इस पेड़ की दो शाखाएँ—
एक शाखा पर सोने का फल है, दूसरी पर चाँदी का।
लेकिन किसी को पता नहीं कि कौन-सा फल असली है और कौन-सा नकली।
केवल एक फल तोड़ने की अनुमति है।
अगर नकली निकला, तो दोनों हाथ काट दिए जाएंगे।
यदि असली निकला, तो जीवन भर सम्मान मिलेगा।
क्या करोगे?”
सभा में गहमा-गहमी मच गई।
किसी ने कहा—
“जो बड़ा दिखे, वही असली होगा!”
दूसरे ने कहा—
“सोना चाँदी के मुक़ाबले असली होगा!”
आरव ने शांति से कहा—
“मंत्रीवर, मैं पहले अपनी आँखों और ज्ञान का उपयोग करूँगा।
असली और नकली में कोई न कोई लक्षण होगा—वज़न, गंध, बनावट।
अगर कोई संकेत न मिले, तो मैं चाँदी का फल चुनूँगा।
क्योंकि सबसे चमकदार चीज़ अक्सर छल होती है।”
सभा में लोग हैरानी से एक-दूसरे को देखने लगे।
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तीसरे मंत्री ने एक गूढ़ प्रश्न किया—
“यदि तुम्हारे सामने दो रास्ते हों—
पहला रास्ता छोटा है लेकिन उस पर डरावने शब्दों के पत्थर लगे हैं—‘यहाँ जाना मौत को बुलाना है।’
दूसरा रास्ता लंबा है, और लोग कहते हैं ‘यह सुरक्षित है।’
लेकिन किसी ने भी खुद दोनों रास्ते तय नहीं किए।
तुम्हें शीघ्रता से गंतव्य पर पहुँचना है।
तुम कौन-सा रास्ता चुनोगे?”
कई युवकों ने कहा—
“लंबा रास्ता लेंगे।”
किसी ने कहा—
“पहला रास्ता जोखिम भरा है!”
आरव ने कहा—
“महाराज, मैं पहले दोनों रास्तों के किनारे देखूँगा।
जिस पर घास जमी हो, वह कम चलने वाला है।
जिस पर पगचिन्ह हों, वह अधिक बार प्रयोग हुआ है।
यदि छोटे रास्ते पर डरावने शब्द हों लेकिन कोई साक्ष्य न हो कि वह घातक है, तो मैं समय बचाने के लिए उसी पर चलूँगा।
भय कई बार झूठा जाल भी होता है।”
राजा ने गंभीर स्वर में कहा—
“तुम्हारे उत्तर तुम्हारी दृष्टि और धैर्य को प्रकट करते हैं।”
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तीन दिन की परीक्षा में जब आरव ने तीन सवालों का उत्तर दे दिया, राजा ने संकेत किया कि एक अंतिम चुनौती बाकी है।
सभा में सन्नाटा छा गया।
राजा के महामंत्री ने गहरा स्वर में कहा—
“मान लो, तुम्हारे पास एक दीपक है।
तुम्हें किसी गुफा में जाना है, जहाँ दस दरवाज़े हैं।
हर दरवाज़े पर लिखा है—‘यहाँ उजाला मिलेगा।’
लेकिन केवल एक दरवाज़े के पीछे सचमुच उजाला है।
बाकी सब में अंधेरा और खाई है।
तुम्हारे पास कोई दूसरा साधन नहीं, न कोई चिह्न, न कोई संकेत।
बस एक दीपक है, जिसे केवल एक बार जलाकर परखा जा सकता है।
तुम कैसे पता करोगे कौन-सा दरवाज़ा सही है?”
सभा में सबकी सांसें थम गईं।
किसी ने कहा—
“दीपक जला कर पहले ही देख लेंगे।”
दूसरे ने कहा—
“कोई अनुमान से चले जाएंगे।”
आरव ने ध्यान से उत्तर दिया—
“महाराज, मैं दीपक को दरवाज़े की दरार से भीतर करके हल्की हवा महसूस करूंगा।
जिस ओर हवा ठंडी, स्थिर और ताज़ी होगी, वहाँ खुला स्थान होगा।
अंधेरी खाई में हवा की गति अलग होती है।
दीपक का उपयोग करने से पहले मैं अपनी इंद्रियों की पूरी शक्ति लगाऊंगा—कानों से, हाथों से, सूंघकर।
दीपक केवल अंतिम पुष्टि के लिए होगा, अनुमान के लिए नहीं।”
राजा ने प्रशंसा भरी दृष्टि से कहा—
“तुमने साधन का सही उपयोग और संयम सिखा दिया।”
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राजा अब स्वयं उठे।
उन्होंने धीरे से अपनी तलवार की नोक से ज़मीन पर एक वृत्त खींचा और बोले—
“यह अंतिम प्रश्न है।
मान लो, तुम्हारे पास एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें अमरत्व का रहस्य छुपा है।
पर शर्त यह है—
पुस्तक पढ़ने वाला व्यक्ति सात दिनों तक बोल नहीं सकेगा।
उसी समय, तुम्हारे गाँव में महामारी फैलने वाली है, और लोगों को तुरंत उपाय जानना आवश्यक है।
अगर तुम पुस्तक पढ़ोगे, तो अमर हो जाओगे और सदा के लिए ज्ञान का साधन बन सकोगे।
लेकिन सात दिनों की चुप्पी में सैकड़ों लोग मर सकते हैं।
अगर न पढ़ो, तो साधारण जीवन जियोगे, पर इस समय लोगों की रक्षा कर सकोगे।
बताओ—क्या करोगे?”
सभा में सन्नाटा छा गया।
बहुत देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा।
फिर कुछ युवकों ने साहस बटोरकर कहा—
“राजन, अमरत्व का अवसर छोड़ना मूर्खता होगी।
अगर यह ज्ञान मिला तो आने वाले वर्षों में लाखों लोगों को बचाया जा सकेगा।
कुछ की मृत्यु तो समय का विधान है।”
किसी ने धीमे स्वर में कहा—
“पर अगर इस बार गाँव के लोग मर गए तो फिर इस ज्ञान का अर्थ ही क्या होगा?”
किसी ने तर्क दिया—
“यदि कोई एक व्यक्ति अमर हो जाए तो वह भविष्य में महामारियों को सदा के लिए समाप्त कर सकेगा। यह दीर्घकालीन भलाई है।”
राजा ने सबके तर्क सुने।
फिर उन्होंने आरव की ओर देखा।
आरव ने कुछ क्षण आँखे मूँद कर विचार किया।
उसके चेहरे पर कोई भय या लोभ नहीं था—केवल गंभीरता और करुणा थी।
उसने धीरे से कहा—
“महाराज, मैं इस पुस्तक को हाथ भी नहीं लगाऊँगा।
मैं मानता हूँ—जो सहायता अभी दी जा सकती है, वही सबसे बड़ी होती है।
यदि मैं सात दिन चुप रहूँ और मेरे गाँव के लोग मर जाएँ, तो वह अमरत्व मेरे लिए शाप बन जाएगा।
मुझे अमर बनना नहीं चाहिए, अगर मेरे कर्तव्य का बलिदान इसकी कीमत है।
अगर मेरी मृत्यु भी नियति में लिखी हो, तो मैं उसे स्वीकार करूँगा—लेकिन अपने लोगों को इस समय असहाय नहीं छोड़ूँगा।”
सभा में फिर से सन्नाटा पसर गया।
राजा ने उसकी आँखों में देखा—
वहाँ कोई पश्चाताप नहीं था, बस दृढ़ निश्चय था।
राजा ने तलवार ज़मीन पर टिका दी और कहा—
“आज इस प्रश्न का कोई एकमात्र सही उत्तर नहीं था।
लेकिन जिस दृष्टिकोण में लोभ से अधिक दायित्व और करुणा हो, वही मेरे राज्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
तुमने यह बता दिया कि विवेक और आत्म-नियंत्रण ही सच्चे सलाहकार की पहचान हैं।
आज से तुम इस राज्य के प्रधान सलाहकार नियुक्त किए जाते हो।”
सभा में सब झुक गए।
कुछ युवक जो अमरत्व चुनने के पक्ष में थे, वे भी सिर झुकाकर बोले—
“आरव, तुम्हारा चयन इसीलिए हुआ कि तुमने सबसे पहले दूसरों का जीवन महत्त्वपूर्ण समझा।”
राजा ने धीरे से कहा—
“कर्म और विचार ही किसी को अमर बनाते हैं, देह नहीं।”
राजा चंद्रभान ने सभा में घोषणा की—
“आज यहाँ उपस्थित सभी लोगों ने देखा कि सच्ची बुद्धिमत्ता केवल ज्ञान में नहीं, बल्कि निर्णय लेने की निडरता में छुपी होती है।
इस युवक ने हमें दिखा दिया कि विवेक, करुणा और धैर्य—यही तीनों एक सच्चे मार्गदर्शक का गहना हैं।
यही कारण है कि हम इसे अपने राज्य का प्रधान सलाहकार नियुक्त करते हैं।”
सभा में गूंजता आशीर्वाद, मंत्रियों की सराहना, और हजारों लोगों की तालियों की आवाज़ के बीच आरव खड़ा था—चुप, विनम्र और नत-मस्तक।
उसके चेहरे पर कोई गर्व नहीं था।
उसकी आँखों में एक ही संतोष था कि उसने किसी का विश्वास नहीं तोड़ा।
सभा समाप्त हुई।
राजा ने उसे एक रेशमी चादर और स्वर्ण-मुद्राओं की थैली भेंट की।
मंत्रियों ने कहा—“तुम्हारे उत्तरों में जो स्पष्टता थी, वही तुम्हारी सबसे बड़ी अमरता है। धन से नहीं, तुम्हारी दृष्टि से यह राज्य समृद्ध होगा।”
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उस रात महल में दीयों की पंक्तियाँ जलीं।
संगीत गूंजा।
सारे नगर में चर्चा फैल गई कि धरणीपुर का एक युवक आज राज्य का प्रधान सलाहकार बन गया!
सवेरे आरव ने महल की सीढ़ियाँ उतरीं और घोड़े पर चढ़कर अपने गाँव की ओर चल पड़ा।
गाँव में जैसे ही उसका रथ पहुँचा, घंटों से प्रतीक्षा करते लोग उसके स्वागत में फूल बरसाने लगे।
वे ही लोग, जिन्होंने कभी कहा था—
“किताबें पढ़कर कोई पेट नहीं पालता।”
आज उनके चेहरे पर पश्चाताप और स्नेह दोनों थे।
उसका बचपन का मित्र देवेश भी वहीं था—कमज़ोर, थका-हारा, और आँखों में आँसू लिए।
वह धीरे से बोला—
“मित्र…मैंने धन की राह में क्या-क्या खोया, यह कोई नहीं जानता।
मुझे क्षमा कर दो।
मैं समझता था कि किताबों में कुछ नहीं रखा।
पर सच तो यह है—तुम्हारा ज्ञान ही तुम्हारी असली ताकत बना।”
आरव ने उसके कंधे पर हाथ रखा—
“देवेश, गलतियाँ करने से बड़ा अपराध उन्हें न समझ पाना है।
तू लौट आया, यही सबसे बड़ी जीत है।”
गाँव के बुज़ुर्ग हाथ जोड़कर बोले—
“बेटा, आज तूने बता दिया कि धन के बिना भी कोई बड़ा हो सकता है।
तूने हमारी आँखें खोल दीं।”
गाँव की चौपाल पर सब लोग इकट्ठा हुए।
राजा ने संदेश भिजवाया कि आरव शीघ्र राजधानी लौटे।
लेकिन जाने से पहले उसने गाँव के बच्चों को अपने पास बुलाया।
उसकी गोद में वही मिट्टी की थैली थी जिसमें उसके दादा के ताड़पत्र रखे थे।
उसने दूसरी ओर रखी स्वर्ण-मुद्राओं की थैली उठाई—वही थैली, जो उसे पुरस्कार में मिली थी।
लोग कौतूहल से देख रहे थे—क्या वह इन सिक्कों को अपनी समृद्धि में लगायेगा?
आरव ने मुस्कुराकर गाँव के मुखिया से कहा—
“इन स्वर्ण मुद्राओं में राजा का आशीर्वाद छुपा है।
लेकिन अगर यह धन केवल मेरे लिए रहे, तो इसका मूल्य सीमित होगा।
मैं चाहता हूँ कि इन स्वर्ण मुद्राओं से इस गाँव में एक छोटी पाठशाला बने।
ताकि हर बच्चा पढ़े—चाहे वह धनी हो या निर्धन।
यह पाठशाला मेरे दादा की स्मृति और उस ज्ञान के लिए होगी जिसने मेरी राह दिखाई।”
सभा में सन्नाटा छा गया।
लोगों की आँखें भर आईं।
देवेश ने काँपती आवाज़ में कहा—
“मित्र, तू सच में बड़ा बन गया।
हम सब धन कमाने चले थे—तू वह धन लौटा रहा है, जिससे सबका जीवन बदल सके।”
गाँव के बुज़ुर्ग हाथ जोड़कर बोले—
“आज से यह स्वर्ण मुद्राएँ इस गाँव के भविष्य की नींव होंगी।
तूने दिखा दिया कि असली अमरता दान और शिक्षा में है।”
आरव ने मिट्टी की थैली को अपने हृदय से लगाया और कहा—
“मेरे लिए असली संपत्ति यही अक्षर हैं।
ये स्वर्ण मुद्राएँ तो सिर्फ एक साधन हैं, जिनसे और भी दीप जलेंगे।”
सूरज अस्त होने लगा।
चारों ओर धीमी रोशनी फैल गई।
वह जानता था—
✅ कर्म और विद्या से ही मनुष्य का नाम अमर होता है,
✅ और दान से ही उसका जीवन सार्थक बनता है।
रथ धीरे-धीरे राजधानी की ओर बढ़ चला।
पीछे रह गया गाँव—जिसकी मिट्टी में अब ज्ञान की नयी पौध रोप दी गई थी!