बहुत साल पहले की बात है। हरा-भरा गाँव हरितपुर अपनी सुंदरता और सादगी के लिए दूर-दूर तक मशहूर था। यहाँ के लोग सीधे-सच्चे थे। बच्चे दिनभर खेलते, बूढ़े लोग पेड़ों की छाँव में बैठकर कहानियाँ सुनाते।
लेकिन गाँव में एक जगह थी, जहाँ कोई नहीं जाता था।
गाँव के बीचोंबीच एक पुराना, सूखा कुआँ था। कुएँ की दीवारें काई से ढकी थीं और उसके पास एक टूटी-फूटी पत्थर की मेज़ पर एक बड़ी पुरानी किताब रखी थी।
कहते थे, उस किताब को जिसने भी हाथ लगाया, वह बीमार हो जाता या डरावने सपने देखने लगता। इसलिए गाँव वालों ने किताब को छूना तो दूर, देखने तक से तौबा कर ली थी।
*******************************
राजू की उम्र कोई दस-ग्यारह साल की थी, पर उसका दिल बहुत बड़ा था। बड़ा ही हिम्मत वाला लड़का था वो!
उसके दादा जी उसे ढेर सारी कहानियाँ सुनाया करते और फिर वो उस रहस्यमयी कुए की कहानी भी बताते।
उस कहानी को सुनकर नन्हे राजू की जिज्ञासा और भी बढ़ जाती।
वह हमेशा बूढ़े दादा जी की कहानियाँ सुनकर सोचा करता –
“क्या सच में किताब में कोई रहस्यमयी शक्ति कैद है? या यह सब बस डर फैलाने की कहानियाँ हैं?”
*******************************
एक दिन गाँव के बच्चे मैदान में कबड्डी खेल रहे थे। अचानक हवा चलने लगी। कुएँ की ओर से कुछ पन्ने उड़ते-उड़ते आ गए। उनमें से एक पन्ना राजू के पैरों में आकर अटक गया।
पन्ने पर बड़ी सुंदर लिखावट में यह शब्द थे:
“मुझे पढ़ो…मुझे मुक्त करो…मेरा वचन है, मैं किसी का अनिष्ट नहीं करूंगा…”
राजू ने पन्ना हाथ में लिया। उसे बहुत कोमल, मीठी खुशबू आ रही थी।
उसके दोस्त गोपाल और नेहा डरकर पीछे हट गए।
नेहा बोली,
“राजू, इसे फेंक दे! यह वही किताब का पन्ना होगा। हम सबको कुछ हो जाएगा!”
लेकिन राजू ने पन्ने को प्यार से मोड़कर अपनी जेब में रख लिया।
“अगर यह किसी की मदद की पुकार है, तो मुझे सुनना चाहिए।”
रात को जब वह घर लौटा, माँ ने उसके कपड़े धोते वक्त जेब में से वह पन्ना निकाला।
माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं।
“राजू, तुम उस किताब के पास मत जाना। कहते हैं, बहुत साल पहले किसी विद्वान ने वहाँ कोई जादू किया था। हम नहीं जानते, सच क्या है।”
राजू ने माँ का हाथ पकड़ा और मुस्कराया।
“माँ, अगर कोई बरसों से अकेला पड़ा है और मदद मांग रहा है, तो क्या हम डरकर उसकी पुकार अनसुनी कर दें?”
माँ ने कुछ नहीं कहा, बस उसके माथे को चूम लिया।
मगर वो नहीं चाहती थी के राजू उस किताब के पास जाये। माँ को लगा के राजू जल्द ही किताब के बारे में भूल जायेगा और वह कभी नहीं जायेगा।
*******************************
अगली सुबह गाँव में चर्चा फैल गई कि कुएँ से आवाज़ें आने लगी हैं।
राजू के मन में तय हो गया – अब देर नहीं।
रात के समय, जब पूरा गाँव सो रहा था, राजू अपनी लालटेन, रोटी का एक टुकड़ा, और दादा जी की दी हुई लकड़ी की तावीज़ लेकर कुएँ की ओर चला।
हवा में अजीब-सी मिठास थी। जैसे कोई चुपचाप मुस्करा रहा हो।
कुएँ के पास पहुँचा, तो किताब हल्की-हल्की चमक रही थी। उसकी जिल्द पर सुनहरे अक्षर उभरे:
“मैं कैद नहीं, अपूर्ण हूँ। अगर मेरा आखिरी पन्ना मिल जाए, मैं मुक्त हो जाऊँगा…”
राजू ने काँपती उँगलियों से किताब को छुआ। किताब भारी थी, पर उसमें कोई डरावनी बात महसूस नहीं हुई।
राजू को लगा जैसे कोई उस पर भरोसा कर रहा हो।
*******************************
राजू ने पन्ना किताब पर रखा।
एक पल को सब कुछ शांत हो गया।
फिर अचानक किताब इतनी तेज़ चमक उठी कि राजू की आँखों से आँसू बह निकले।
वो रोशनी उसके चेहरे पर गिरी और एक पल के लिए उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—
“तुमने मुझे पूरा कर दिया…”
पर यह यहीं खत्म नहीं हुआ।
जैसे ही किताब पूरी हुई, कुएँ के भीतर गहराई से एक धीमी गर्जना उठी।
राजू ने डर कर कुएँ में झाँका।
उसने देखा—कुएँ की दीवारों पर पुराने चित्र उभर रहे थे।
वे चित्र किसी पुस्तकालय जैसे दिखते थे—लाखों किताबें, पन्ने, अक्षर, और उन किताबों के बीच कई बच्चे बैठे पढ़ रहे थे।
उसने महसूस किया कि यह कोई आम कुआँ नहीं, बल्कि ज्ञान का गुप्त द्वार था।
कुएँ के भीतर हल्की नीली रौशनी लहराने लगी।
रौशनी में उसे किसी के पैर दिखे—
छोटे-छोटे पैरों के निशान, जैसे कोई बच्चा उसी रास्ते पर चलता रहा हो, सदियों से…
एक-एक कर उन पैरों के निशान ऊपर चढ़ते गए और किताब के पास आकर रुक गए।
राजू ने काँपती आवाज़ में पूछा—
“तुम कौन हो? क्या तुम्हें कुछ चाहिए?”
कोई उत्तर नहीं आया।
पर किताब की जिल्द पर अक्षर खुद-ब-खुद उभरे—
“ये उन बच्चों की स्मृतियाँ हैं, जिनके सपनों को मैंने सँजो कर रखा था। हर बच्चा जो सच्चाई से पढ़ना चाहता था, उसकी कहानी मेरे भीतर थी।”
राजू ने गहरी साँस ली।
उसने किताब को दोनों हाथों में उठाया।
किताब का वज़न पहले से हल्का लगने लगा—जैसे अब उसमें कोई दुख नहीं बचा हो।
लेकिन तभी एक और करिश्मा हुआ।
कुएँ के बीचोंबीच नीली रौशनी से एक पतली सी सीढ़ी उभर आई।
वो सीढ़ी नीचे जाती थी, और ऐसा लग रहा था जैसे अंतहीन गहराई में कहीं जाकर रुकती हो।
राजू की धड़कन तेज़ हो गई।
उसका मन कह रहा था—
“नीचे जाओ… जो अधूरी कहानियाँ बची हैं, उन्हें बाहर लाओ…”
उसने अपने डर को काबू किया।
लालटेन को कसकर पकड़ा और धीरे-धीरे सीढ़ियों पर पाँव रखा।
हर सीढ़ी पर किसी बच्चे का नाम खुदा हुआ था—
“मधु”, “शिवा”, “रामू”, “ललिता”…
जैसे ये किताब उन सबकी आवाज़ों से बनी हो।
राजू लगभग दस कदम नीचे गया।
वहाँ उसे एक पत्थर की अलमारी दिखी।
उस अलमारी के ऊपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था—
“ज्ञानदीप का संग्रहालय”
अलमारी खुली हुई थी।
उसके भीतर पुराने चिट्ठे, मिट्टी के खिलौने, कंचे और कागज़ की तितलियाँ सजी थीं।
हर चीज़ के पास एक छोटा सा पर्चा लगा था—
“किसी बच्चे का सपना…”
राजू की आँखों में आँसू आ गए।
वह समझ गया—
यह कुआँ डर की जगह कभी किसी समय बच्चों की उम्मीदों को सहेजने की जगह था।
कभी यहाँ खेलते बच्चों की हँसी गूंजती थी।
राजू ने धीरे से किताब को उस अलमारी पर रखा।
तभी हल्की सी गुनगुनाहट हवा में भर गई।
वो वही कोमल आवाज़ थी—
“तुमने जो किया, वो किसी ने नहीं किया। अब यह कुआँ कभी डर की जगह नहीं रहेगा…यह हरितपुर का ज्ञान मंदिर बनेगा…”
राजू ने आँखें बंद कीं।
उसके मन में एक अनोखी शांति भर गई।
जैसे उसके दिल के भीतर से भी कोई बोझ उतर गया हो।
*******************************
जब वह सीढ़ियों से वापस ऊपर लौटा, गाँव की सुबह हो चुकी थी।
सूरज की पहली किरणें कुएँ के किनारे रखी किताब पर गिर रही थीं।
किताब अब साधारण लग रही थी—किसी भी पुरानी किताब जैसी।
पर राजू जानता था—
यह साधारण नहीं, बल्कि सपनों और ज्ञान की गुप्त चाबी थी।
राजू को पता था – ये सब गाँव वालों को बताना आसान नहीं होगा।
वह किताब लेकर धीरे-धीरे घर लौटा।
सुबह चौपाल में शोर मच गया—
“कहाँ गया राजू?”
“सुना है किताब लेकर आया है!”
“पंडित जी को बुलाओ!”
कुछ ही देर में गाँव के बुजुर्ग, पंडित जी और बच्चे उसके आँगन में आ गए।
पंडित जी ने आते ही गुस्से में उँगली उठाई—
“राजू! तुझे समझ नहीं आता? ये सब प्रलाप है। तू इस किताब को वापस वहीं रख दे। अगर कुछ अनिष्ट हो गया तो?”
राजू ने हिम्मत जुटाई। उसने आँखें उठाकर सबकी ओर देखा।
उसके होंठ सूख गए थे लेकिन आवाज़ में सच्चाई थी—
“पंडित जी… अगर यह किताब सचमुच किसी की मदद की पुकार है, तो क्या हम डरकर उसे अनसुना कर दें? क्या डर की वजह से हम सच तक कभी नहीं पहुँचेंगे?”
भीड़ में से एक बूढ़ी अम्मा बोलीं—
“पर बेटा, अगर ये सब झूठ निकला तो? तू अभी बच्चा है। तुझे क्या पता इसमें कौन-सी बला छुपी हो…”
तभी पंडित जी ने कड़क आवाज़ में कहा—
“ठीक है! अगर तुझे इतना ही विश्वास है, तो यह बात तू अकेले नहीं करेगा। सब गाँव वालों के सामने साबित कर। शाम को चौपाल में मिलते हैं। वहाँ यह किताब खोलना…फिर हम सब देखेंगे कि सच्चाई क्या है।”
राजू ने गहरी साँस ली।
उसका गला सूख गया था।
माँ की आँखों में डर था, लेकिन उसके हाथ में ताकत भी थी।
राजू ने धीमे स्वर में कहा—
“ठीक है पंडित जी। मैं किताब चौपाल में लाऊँगा। जो भी सच होगा, वही सबके सामने होगा।”
भीड़ में कानाफूसी होने लगी—
“कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए…”
“इतनी पुरानी चीज़…”
“ये लड़का पागल हो गया है…”
माँ ने राजू का काँपता हाथ थामा।
उसकी आवाज़ डूबी हुई थी लेकिन दृढ़ थी—
“अगर मेरा बेटा कह रहा है, तो मैं भी वहाँ आऊँगी।”
पंडित जी ने अंतिम बार उँगली उठाई—
“तो तय रहा। शाम को चौपाल में सब आएँगे। वहीं सच सामने आएगा।”
राजू ने हौसला बाँध लिया।
उसे पता था—शायद यह उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा इम्तिहान होगा।
*******************************
शाम होने लगी।
पूरा गाँव चौपाल में जमा हो गया।
आसमान पर गहरे बादल थे। हल्की ठंडी हवा चल रही थी।
किसी ने लालटेन टांग दी, किसी ने चौपाल की मिट्टी बुहार दी।
राजू माँ के साथ पहुँचा।
उसके हाथ में वही किताब थी।
लोगों की आँखें उसी पर गड़ी थीं।
पंडित जी ने गाँव वालों की ओर देखा—
“सभी सुन लें। यह लड़का कहता है कि किताब में कोई रहस्य है। अगर कुछ अनर्थ हो गया तो हम सब इसके जिम्मेदार नहीं। क्या सब सहमत हैं?”
भीड़ में कुछ बुजुर्गों ने सिर हिलाया।
किसी ने डरे हुए स्वर में कहा—
“हम देखना चाहते हैं…पर भगवान कुछ बुरा न करे…”
राजू ने किताब को दोनों हाथों से थाम लिया।
उसके हाथ ठंडे हो रहे थे, लेकिन उसने हिम्मत नहीं छोड़ी।
माँ ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।
“डर मत बेटा। जो सच होगा, वही निकलेगा।”
राजू ने गहरी साँस ली।
उसकी आवाज़ हल्की काँप रही थी—
“मैं यह किताब गाँव के सामने खोल रहा हूँ…ताकि सब जान सकें कि इसमें क्या है…”
एक पल को सन्नाटा छा गया।
लालटेन की लौ भी जैसे थम गई हो।
राजू ने किताब की जिल्द पर हाथ रखा।
भीड़ में एक औरत ने फुसफुसाया—
“देखो…किताब की चमक बढ़ रही है…”
जैसे ही उसने पहली जिल्द खोली, किताब के पन्ने धीरे-धीरे हवा में फड़फड़ाने लगे।
उसमें से हल्की सुनहरी रौशनी निकली और चौपाल के बीच एक गोल घेरे में फैल गई।
कई औरतों ने घूँघट कर लिया।
बच्चे माँओं की गोद में छुप गए।
पंडित जी का मुँह खुला का खुला रह गया।
किताब की रौशनी में शब्द उभरने लगे—
“मैं कैद नहीं, अपूर्ण हूँ। मेरा नाम ज्ञानदीप है। जिसने मुझे पूरा किया, उसी का साहस सच्चा है।”
राजू की आवाज़ भरी हुई थी—
“पंडित जी…क्या अब भी आप कहेंगे कि यह झूठ है?”
पंडित जी ने काँपते स्वर में कहा—
“मैं…मैंने ऐसा कभी नहीं देखा…”
किताब की रौशनी और तेज़ हो गई।
सभी के चेहरों पर सुनहरी आभा पड़ गई।
मानो कोई अदृश्य हाथ सबके दिल को छू रहा हो।
तभी किताब से आवाज़ आई—
“तुम सबका धन्यवाद…अब मैं डर की नहीं, ज्ञान की प्रतीक रहूँगी…”
लोग एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।
भीड़ में किसी ने धीमे से ताली बजाई।
फिर दूसरी, तीसरी ताली…
धीरे-धीरे चौपाल में तालियों का शोर गूंजने लगा।
माँ ने राजू को अपने सीने से लगा लिया।
उसकी आँखों से आँसू गिर रहे थे—
“मेरा बेटा…तू सच्चा निकला…”
राजू ने सिर झुका लिया।
आज उसे सच में लगा कि हिम्मत ने डर को हरा दिया।
*******************************
कई दिन बीत गए।
अब बच्चे रोज वहाँ किताब पढ़ते।
राजू एक शाम अकेला बैठा था।
तभी किताब खुद खुल गई।
पन्ने हवा में पलटने लगे।
आखिरी पन्ने पर सुनहरी लकीरें उभरीं –
“राजू… मेरी कहानियों का अंत यहीं नहीं होता…”
“अब मैं चाहती हूँ कि तुम हर गाँव जाओ… हर बच्चे तक पहुँचो… और जो कहानी अधूरी रह गई है, उसे पूरा करो…”
राजू की आँखें नम हो गईं।
उसने किताब से कहा –
“मैं वादा करता हूँ… मैं हर गाँव जाऊँगा… हर बच्चे तक तुम्हारी कहानियाँ पहुँचाऊँगा…”
उस रात सपने में उसे तितलियों की तरह उड़ती कहानियाँ दिखीं।
सुबह उसकी मुट्ठी में एक पन्ना था –
“यह पहली कहानी है… वहाँ से शुरू करो…”
राजू ने अपनी साइकिल निकाली।
पीठ पर किताब बाँधी।
और निकल पड़ा…
हर बच्चे के सपनों को पूरा करने…