रंगों वाली दीवार

कचरू नगर — नाम सुनते ही शहरवालों के चेहरे पर नाक-भौं सिकुड़ जाती थी। पूरा शहर इस इलाके को उसकी गंदगी, बदबू और बदनामी के लिए जानता था। गलियों में बजबजाते नाले, दीवारों पर पीक, टूटी सड़कें, और हर कोना जैसे अव्यवस्था की कहानी कहता हो।

अच्छे पढ़े-लिखे लोग तो इस इलाके में कदम रखना भी पसंद नहीं करते थे।

कई बार नगरपालिका ने सफाई अभियान चलाया, लेकिन कुछ दिन बाद सब वैसा ही हो जाता। लोगों ने मान लिया था — “कचरू नगर कभी नहीं सुधर सकता।

लेकिन कोई था जो इस सोच से सहमत नहीं था — रिया।

रिया, 22 साल की आर्ट स्टूडेंट थी। उसका बचपन इसी गली में बीता था — लेकिन उसका सपना, सोच और नजरिया बाकियों से अलग था।

वो अक्सर अपने दोस्तों से कहती, “ये गंदगी तो हमें ही साफ करनी होगी… कोई और क्यों करेगा? अगर हम अपने मोहल्ले की परवाह नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?”

लेकिन हर बार उसका मजाक उड़ाया जाता।

कॉलोनी के दोस्त हँसते हुए कहते: “तू पेंटिंग कर, दीवारें मत रंगने लग जाना!”

कॉलेज के दोस्तों का ताना होता: “कचरू नगर की सफाई? तू सीरियस है?”

रिश्तेदार कहते: “बेटी, ये सब करने से कुछ नहीं बदलेगा… अपना समय बर्बाद मत कर।”

हर किसी ने उसके आइडिया को हंसी में उड़ा दिया। लेकिन रिया ने हार नहीं मानी। उसे यकीन था कि अगर किसी को शुरुआत करनी है, तो वो खुद क्यों नहीं?

रिया ने जब पहली दीवार रंगना शुरू किया, तो सोच रखा था कि अब कोई इसे गंदा नहीं करेगा। लेकिन हर बदलाव का सामना पहले विरोध से होता है।

एक सुबह की बात है —

रिया ब्रश साफ कर रही थी, तभी एक अधेड़ उम्र का आदमी दीवार की तरफ बढ़ा, पाजामा ढीला किया और वही करने लगा, जो सालों से करता आया था।

रिया भागती हुई उसके पास गई और बोली —
“काका! प्लीज़, यहां मत कीजिए। देखिए न, मैंने अभी पेंट किया है… ये अब सार्वजनिक टॉयलेट नहीं है।”

वो आदमी हँस पड़ा —
“अरे बिटिया, हम तो सालों से यहीं करते आ रहे हैं। दीवार रंग दी तो क्या, आदत थोड़ी बदल जाएगी?”

रिया ने बहुत शांत स्वर में कहा —
“आदतें बदलनी पड़ती हैं, तभी मोहल्ला बदलेगा।”

लेकिन वो व्यक्ति बिना सुने चला गया, जैसे रिया की बात हवा में उड़ गई हो। बेचारी रिया स्तब्ध रह गयी!

कुछ दिन बाद की बात है।

रिया दीवार पर “स्वच्छता” का एक और चित्र बना रही थी, तभी एक महिला पास के घर से आईं और एक पॉलिथीन में भरकर कचरा उसी दीवार के पास फेंकने लगीं।

रिया ने विनम्रता से कहा —
“आंटी, ये जगह अब कचरे के लिए नहीं है। ये देखिए, हमने कितना सुंदर चित्र बनाया है…”

लेकिन आंटी भड़क गईं —
“तू कौन होती है मुझे रोकने वाली? मैं सालों से यही करती आई हूं। मोहल्ला साफ करने का ठेका लिया है क्या तूने?”

रिया चुप रही।

उसके हाथ कांपने लगे, पर आवाज नहीं टूटी।

“ठेका नहीं लिया है आंटी… सिर्फ कोशिश कर रही हूं, ताकि हमारी गली भी दूसरों जैसी लग सके।”

आंटी कुछ पल उसे देखती रहीं, फिर बिना कुछ बोले चली गईं।

उस दिन रिया बहुत थकी हुई थी — शारीरिक रूप से नहीं, भावनात्मक रूप से। लेकिन उसने खुद से एक वादा किया — “कोई सुने या न सुने… मैं बोलती रहूंगी। कोई साथ आए या न आए… मैं चलती रहूंगी।”

इतने तानों, झिड़कियों और बेइज्जती के बाद भी रिया ने हार नहीं मानी।
वो जानती थी कि बदलाव वक्त मांगता है, लेकिन अगर इरादा सच्चा हो तो रास्ता बनता है।

अब वो हर दिन सुबह एक दीवार पर थोड़ी देर पेंट करती, फिर आस-पास पड़ा कचरा खुद उठाकर कूड़ेदान में डालती।
ना उसके पास कोई टीम थी, ना मदद — बस एक ब्रश, कुछ रंग और एक जिद थी।

धीरे-धीरे लोग उसे पहचानने लगे।

पहले जो हँसते थे, अब रुककर उसकी पेंटिंग देखते थे।
बच्चे उसे “दीदी” कहकर पास आते, कुछ लोग पानी पिला देते, तो कोई कूड़े की पॉलिथीन दूर फेंक आता।

रिया का काम अब मोहल्ले की बात बन रहा था।

एक सुबह रिया एक दीवार के पास पेंट कर रही थी, और साथ ही सड़क से सूखे पत्ते और कचरा भी साफ कर रही थी।

उसी वक्त वहां से नगर निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी गुज़र रहे थे।
वो रुके, कुछ देर उसे चुपचाप काम करते देखते रहे।

फिर उन्होंने आगे बढ़कर पूछा,
“तुम ये सब अकेले कर रही हो?”

रिया ने सिर हिलाया,
“हां सर… बस कोशिश कर रही हूं कि हमारी गली थोड़ी और सुंदर लग सके।”

अधिकारी बहुत प्रभावित हुए।
उन्होंने तुरंत अखबार के पत्रकारों को बुलाया और कहा —
“इस लड़की का काम सफाई अभियान की असली प्रेरणा है। इसके जज़्बे को पूरे शहर को जानना चाहिए।”

और अगले दिन…
अगले दिन अखबार की हेडलाइन थी:

 “कचरू नगर की दीवारों पर रंगों की क्रांति — एक लड़की की अकेली मुहिम से बदला पूरा मोहल्ला!”

रिया की तस्वीर अखबार, सोशल मीडिया, और टीवी पर दिखाई देने लगी।
शहरभर में उसकी चर्चा होने लगी।

कई समाजसेवी संस्थाएं और एनजीओ खुद आगे आए और बोले:
“हमें आपके साथ मिलकर काम करना है, रिया।”

अब वो अकेली नहीं थी।
अब उसके पास लोग थे, साधन थे, और सबसे बढ़कर वो सम्मान था, जो कभी उसे उस मोहल्ले में नहीं मिला था।

कुछ दिनों बाद, रिया ने नगर निगम के उस अधिकारी से विनम्रता से एक अनुरोध किया:
“सर, क्या हम इस जगह का नाम बदल सकते हैं? ‘कचरू नगर’ अब इस मोहल्ले की पहचान नहीं है। यहां अब गंदगी नहीं, उम्मीद बसती है… अब ये जगह ‘प्रगति’ का प्रतीक है।”

अधिकारी मुस्कुराए और बोले,
“तुम बिल्कुल सही कह रही हो, रिया। अब यह ‘कचरू नगर’ नहीं… ‘प्रगति कॉलोनी’ कहलाने के लायक बन चुका है।”

उस दिन से पूरे शहर ने इस इलाके को एक नए नाम से जानना शुरू कर दिया — “प्रगति कॉलोनी”।
एक लड़की की सोच, उसकी जिद और उसके रंगों ने नाम, पहचान और भविष्य — तीनों बदल दिए।

रिया का सपना तब पूरा हुआ, जब एक शाम उसके पिता उसके पास आकर बोले —
“बेटा, तुमने सिर्फ दीवारें नहीं बदलीं… तुमने लोगों की सोच, इस मोहल्ले की पहचान और अपने पापा का यकीन भी बदल दिया।”

रिया ने मुस्कुराकर ब्रश नीचे रखा, और आसमान की तरफ देखा —
उसके सपनों की उड़ान अब शुरू हुई थी।

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