“माँ, आज स्कूल में लड़ाई हो गई… पर तू होती तो बता देती कि गलती मेरी नहीं थी।”
आदि छत पर बैठा था।
सात साल का वो लड़का, जो रोज़ रात को सबसे चमकते तारे से बात करता था — क्योंकि उसे बताया गया था कि वहीं उसकी माँ रहती है।
तारे से बातें करना उसकी दिनचर्या बन चुकी थी।
वो तारा — कभी उसे डाँटता था, कभी थपकी देता,
कभी खामोशी से बस चमककर उसे बताता था — “मैं यहीं हूँ।”
हर रात आदि माँ को सपने में देखता।
माँ वहाँ होती — चमकदार परछाईं में।
वो कहती:
“आज रोया तू?”
“थोड़ा सा…”
“तो तकिए के नीचे देख… आज मेरा भेजा हुआ जादू वहाँ है।”
सुबह आदि उठता और तकिए के नीचे कुछ न कुछ पाता:
मिट्टी की बनी छोटी घंटी …
चमकदार मोती जैसा पत्थर …
एक चिट्ठी जिसमें लिखा होता — “तू मेरा सबसे प्यारा बेटा है।” …
वो सब कुछ जमा करता, जैसे कोई माँ के प्यार का संग्रहालय बना रहा हो।
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कुछ महीने बाद उसके पापा घर में गिरिजा को लाए।
“ये अब तेरी माँ जैसी है,” पापा ने कहा।
गिरिजा ने कोशिश की – वो उसके स्कूल की किताबों पर कवर चढ़ाती, नाश्ते में कुछ बनाती, पर आदि की बातों में सिर्फ एक नाम होता — “तारा माँ।”
गिरिजा को हर बार जैसे छूकर कोई पीछे हट जाता।
वो चाहती थी कि बच्चा उसे देखे, पुकारे,
पर आदि की दुनिया आसमान से नीचे नहीं आती थी।
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एक सुबह गिरिजा रसोई में चुपचाप खड़ी थी।
आलू काटते हुए उसकी नजर बार-बार तल पर रखी खिचड़ी की रेसिपी पर जा रही थी — वही जो उसने चुपके से आदि की दादी से सीखी थी।
उसका मन था — आज आदि के लिए खिचड़ी बनाए, वैसे ही जैसी उसकी माँ बनाती थी।
पर तभी पीछे से आदि की आवाज़ आई:
“तारा माँ की खिचड़ी में हल्का सा गुड़ भी होता था… और प्यार ज़्यादा…”
गिरिजा की उँगलियाँ एक पल को रुक गईं।
दिल में एक अनजानी टीस उठी।
उसने खुद को संभाला, मुस्कुराने की कोशिश की, और कहा:
“मुझे भी खिचड़ी बनानी आती है… पर तुम्हारी तारा माँ जैसी नहीं।”
आदि बेपरवाही से बोला:
“कोई नहीं बना सकता। वो तो तारा बन गई हैं… बहुत दूर की माँ, लेकिन सबसे पास हैं।”
गिरिजा ने उसकी पीठ की ओर देखा — और मन ही मन कहा:
“काश मैं भी थोड़ा सा पास हो पाती… तेरे तारे और ज़मीन के बीच कहीं।”
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घर के पीछे एक छोटा सा कोना था, जहाँ आदि ने एक बग़ीचा बना लिया था —
उस बग़ीचे में कई तरह के फूल खिल आये थे । हर फूल जैसे एक भावना का प्रतिनिधि था …
सफेद गुलाब – माफ़ी
नीली बेल – उदासी
पीला गेंदे का फूल – उम्मीद
गुलाबी गुड़हल – माँ का प्यार
उन फूलों पर रंग बिरनगी तितलियाँ भी मंडराती रहती।
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शाम की हल्की धूप बग़ीचे की पत्तियों पर नाच रही थी।
आदि अकेला बैठा था — हाथ में गुलाबी फूल, और आँखों में कुछ अनकहा।
तभी उसकी प्यारी नीलू तितली आकर उसकी नाक पर बैठ गई।
आदि ने धीमे से पूछा:
“तुम सच में तारा माँ की डाकिया हो ना?”
नीलू ने हल्की सी पंखों की फड़फड़ाहट में जवाब दिया:
“तू जो कहे, वही हूँ… आज क्या भेजना है उन्हें?”
आदि थोड़ी देर चुप रहा… फिर सिर झुकाकर बोला:
“अगर मैं गिरिजा माँ को…
माँ कह दूँ…
तो तारा माँ नाराज़ तो नहीं होंगी?”
नीलू उसके कंधे पर आकर बैठ गई।
“तारा माँ ने ही तो कहा था —
जब तू माँ की गोद चाहे, मैं उसे ज़मीन पर भेज दूँगी।”
आदि की आँखें बड़ी हो गईं।
“मतलब… गिरिजा माँ को उन्होंने भेजा?”
नीलू मुस्कुराई:
“प्यार कभी बँटता नहीं बेटा…
माँ ऊपर है, माँ नीचे है —
दोनों के दिल में तू ही तू है।”
आदि ने अपनी आँखें बंद कीं, और एक लंबी साँस ली।
फिर धीरे से बोला:
“तो मैं आज पहली बार उन्हें ‘माँ’ कह दूँ?”
नीलू बोली:
“बिलकुल… और देखना, तारा उस पल और तेज़ चमकेगा।”
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एक दिन गिरिजा ने चिढ़कर कहा:
“तारे देखना बंद करो। कोई तारा माँ नहीं होता!”
आदि कुछ नहीं बोला।
उस रात वह बग़ीचे में गया, एक सफेद गुलाब लगाया।
सुबह गिरिजा को तकिए के नीचे एक पर्ची मिली:
“मैं नाराज़ नहीं हूँ माँ।
मैंने बस आपको थोड़ा याद किया… अब ठीक हूँ :)”
गिरिजा की उंगलियाँ काँप गईं।
उसने पहली बार सोचा —
“क्या उसने मुझे ‘माँ’ कहा?”
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एक शाम गिरिजा रो रही थी। उसकी अपनी माँ बीमार थी।
आदि आया, धीरे से घंटी उसके हाथ में रखी और बोला:
“ये मेरी तारा माँ की घंटी है।
आप भी बजाओ… माँ सबकी सुनती है।”
गिरिजा ने घंटी बजाई।
ठंडी हवा खिड़की से आई, जैसे किसी ने आकर माथा चूमा।
उस रात गिरिजा ने सपना देखा — एक तारा चमका और माँ की आवाज़ आई:
“तू अब सिर्फ बहू नहीं, माँ बन गई है।”
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आदि गिरिजा को एक दिन बग़ीचे के पास ले गया।
वो बोला:
“यहाँ बैठो ना… माँ कहती हैं, यहाँ बैठने से दिल साफ होता है।”
गिरिजा बैठ गई।
आदि चुपचाप आया और उसका सिर उसकी गोद में रख दिया।
गिरिजा अवाक् रह गई।
धीरे से उसने आदि के बालों पर हाथ फेरा।
उसके भीतर कुछ पिघला —
“मैं कुछ नहीं कहूँगी… पर अगर तू आज मेरी गोद चुन रहा है, तो मैं इसे माँ की गोद बनाकर रखूँगी।”
ऊपर तारा टिमटिमाया।
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अगली सुबह आदि को तकिए के नीचे चिट्ठी मिली:
“खिचड़ी बनने लगी है… थोड़ा प्यार मिलाया है।
पर नमक अभी भी तारा माँ वाला चाहिए 😋”
आदि खिलखिलाया और दौड़ता हुआ गिरिजा के पास पहुँचा:
“माँ… आज तुम्हारे हाथ की खिचड़ी खाऊँगा। नमक मैं डाल दूँगा!”
गिरिजा मुस्कुराई, और पहली बार उसने उसके सिर पर माँ वाली चुटकी मारी।
अब आदि रोज़ तारे को देखता था, पर बातें अब अकेले नहीं करता।
वो गिरिजा माँ के पास बैठकर कहता:
“आज तारा माँ ने क्या भेजा?”
और गिरिजा मुस्कुरा कर तकिए के नीचे कुछ रख देती —
एक छोटी सी घंटी, एक पंख, या बस एक चिट्ठी जिसमें लिखा होता:
“तू दो माँओं का बेटा है… और दोनों तुझसे बेपनाह प्यार करती हैं।”
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अब आदि को सपनों में तारा माँ कम आती है।
क्योंकि अब उसकी गोद में माँ की खुशबू है,
और तकिए के नीचे प्यार का तोहफा।
आदि जानता है —
माँ सिर्फ वो नहीं होती जो जन्म दे,
माँ वो भी होती है जो
रात को तकिया ठीक करे,
और बिना कहे समझ ले — बेटा उदास है।