गाँव का साधारण लकड़हारा
बहुत समय पहले उत्तर भारत में एक छोटा-सा गाँव था—नाम था सीतापुर। वहाँ कच्चे-पक्के घरों की कतारें थीं, और ज़्यादातर लोग खेती या छोटे-मोटे काम करके गुज़र-बसर करते थे।
इसी गाँव में हीरालाल नाम का एक बूढ़ा लकड़हारा रहता था। उसकी उम्र सत्तर साल के करीब थी। वह हर दिन जंगल में जाता, लकड़ियाँ काटता, बाँधता और फिर गाँव में बेचकर थोड़े बहुत पैसे कमाता। उसकी झोपड़ी साधारण थी—मिट्टी की दीवारें और घास का छप्पर।
गाँववाले अक्सर कहते—
“काका, सारी उम्र निकल गई लकड़ी काटते-काटते, लेकिन न कभी किसी के काम आए, न किसी की मदद की। बस अपने लिए ही जोड़ा करते हो।”
कोई और हँसता—
“सच कहते हैं, आदमी का दिल बड़ा होना चाहिए। कंजूसी में क्या रखा है?”
हीरालाल बस चुपचाप सुनता। उसकी आँखें झुकी रहतीं। उसने कभी किसी बात का जवाब नहीं दिया।
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उधर गाँव में रामस्वरूप नाम का एक व्यापारी भी था। उसका काम अनाज का था। हर महीने वह अपने गोदाम से गेहूं और चावल गरीब घरों में बाँटता। गाँव के लोग उसकी तारीफ करते नहीं थकते।
“रामस्वरूप भैया तो फरिश्ता हैं!”
“भगवान ने इन्हें भेजा है गरीबों का सहारा बनने।” जब भी किसी के घर अनाज पहुँचता, लोग उसी का नाम लेते।
हीरालाल तब भी चुपचाप अपनी लकड़ियों की गठरी लेकर इधर-उधर जाता रहता। कई बार रास्ते में बच्चे उसका मज़ाक बनाते—
“देखो, कंजूस काका आ रहे हैं!”
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वक़्त गुजरता गया। हीरालाल की कमर झुक गई। हाथ कांपने लगे। एक दिन वह तेज़ बुखार में पड़ गया। कई दिन तक उसकी झोपड़ी से धुआँ भी नहीं उठा। कुछ लोग कहने लगे—
“अब ये ज्यादा दिन नहीं टिकेंगे।”
फिर एक सुबह गाँव में खबर फैल गई—हीरालाल नहीं रहे। कुछ लोग रस्म निभाने पहुँचे। कोई ज़्यादा रुकना नहीं चाहता था। लोगों ने जल्दी-जल्दी अंतिम संस्कार करवा दिया।
दोपहर में गाँव के मंदिर में सभा हुई। रामस्वरूप भी वहाँ आया। सब लोग बैठे थे। कोई कह रहा था—
“चलो, अब ये कहानी भी खत्म। न किसी को कुछ दिया, न किसी से कुछ लिया।”
तभी रामस्वरूप आगे बढ़ा। उसकी आवाज़ काँप रही थी—
“भाइयों…बहनों…आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ। ये बात मैं बहुत बरसों से अपने दिल में छुपाए बैठा था। लेकिन अब और नहीं छुपा सकता।”
छुपी हुई इंसानियत और नेकी की मिसाल
लोग चौंक गए। रमस्वरूप ने आँसू पोंछे और बोला—
“पिछले पंद्रह साल से जो अनाज मैं गाँव में बाँटता रहा, वो मेरी कमाई का नहीं था। हर महीने हीरालाल काका मेरे पास आते थे। चुपचाप बोरे रख जाते और कहते—‘रामस्वरूप, ये अनाज उन घरों में पहुँचा देना जहाँ भूख लगी हो। मगर किसी को मत बताना कि ये कौन देता है।’”
सभा में सन्नाटा छा गया। किसी की आँखें हीरालाल की मिट्टी की समाधि से हट नहीं रही थीं।
रामस्वरूप की आवाज़ और धीमी हो गई—
“काका ने अपनी पुश्तैनी ज़मीन तक बेच डाली ताकि कोई भूखा न रहे। लेकिन उन्होंने कभी अपना नाम नहीं बताया। वो चाहते थे कि लोग उन्हें बस एक साधारण लकड़हारा ही समझें।”
अब किसी की जुबान नहीं खुली। जिन लोगों ने उन पर ताने कसे थे, उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। मुखिया ने भर्राई आवाज़ में कहा—
“हमने उन्हें कभी समझने की कोशिश नहीं की। हीरालाल काका, आप जैसे लोग सच्चे रत्न होते हैं।”
उस शाम पूरा गाँव पहली बार हीरालाल की झोपड़ी के बाहर जमा हुआ। सबने उनकी तस्वीर पर फूल चढ़ाए और हाथ जोड़कर माफी माँगी।
🌿 इस नैतिक कहानी से हमें क्या सीख मिलती है?
🌟 इस प्रेरणादायक कहानी से हमें यह सीख मिलती है:
👉 नेकी दिखावे की नहीं होती।
👉 किसी की सादगी पर शक मत करो।
👉 सबसे बड़ा दिल वही होता है जो गुमनाम रहकर दूसरों का सहारा बने।