माँ का त्याग – एक प्रेरणादायक हिंदी कहानी

माँ का त्याग – प्रेरणादायक हिंदी कहानी (Maa Ka Tyag Inspirational Story in Hindi)

गाँव की जिंदगी और माँ-बेटे का रिश्ता

गाँव की गलियों में धूल उड़ती थी। पुराने पेड़ की छाँव तले मिट्टी के घर, छोटे-छोटे सपनों की तरह बिखरे पड़े रहते। ऐसे ही एक घर में सुमित्रा अपने बेटे अंकित के साथ रहती थी। पति का साया बहुत पहले छिन गया था। सुमित्रा ने अपने आँचल और मेहनत से बेटे को पाला था।

अंकित बचपन में माँ से बहुत जुड़ा हुआ था। मिट्टी के खिलौनों से खेलते हुए जब गिर जाता, तो माँ दौड़कर उसे उठा लेती। खाने में मोटे आटे की रोटी और गुड़ ही क्यों न हो, माँ उसे ऐसे खिलाती जैसे दुनिया का सबसे स्वादिष्ट व्यंजन हो।

लेकिन वक्त के साथ हालात बदलने लगे। अंकित बड़ा हुआ, और उसकी नज़रें गाँव से बाहर की चमक-दमक पर टिक गईं। स्कूल के दिनों में जब दोस्त नए जूते पहनकर आते, तो उसके पास पुराने पैबंद लगे जूते होते। जब दोस्तों के पास मोबाइल फोन आया, अंकित की जेब में बस माँ के हाथ से सिला रुमाल होता।

एक दिन स्कूल से लौटते हुए अंकित झुँझलाया हुआ बोला
“माँ, सबके पास अच्छा फोन है। सब इंटरनेट चलाते हैं, दुनिया की बातें करते हैं। मैं ही क्यों हर बार मज़ाक का पात्र बनूँ? आपने मुझे क्यों हमेशा पिछड़ा रखा?”

सुमित्रा ने नरम स्वर में कहा—“बेटा, हमारे पास जितना है, उसी में खुश रहना सीख। मेहनत से बड़ा कोई हथियार नहीं।”

अंकित झल्ला गया—“मेहनत? मेहनत से क्या होता है माँ? मेहनत करके आप क्या पा सकीं? आज भी मिट्टी के घर में रह रहे हैं हम। आप ही की वजह से मैं सबके सामने छोटा दिखता हूँ।”

सुमित्रा चुप हो गई। उसकी आँखों में दर्द था, लेकिन उसने जवाब नहीं दिया। माँ के पास तर्क नहीं थे, बस आँचल में छुपी ममता थी।

सपनों की खींचतान

जैसे-जैसे अंकित जवान हुआ, गाँव की सादगी उसे बंधन-सी लगने लगी।
“माँ, यहाँ रहकर मैं क्या कर लूँगा? शहर जाऊँगा, कुछ बड़ा करूँगा।”

सुमित्रा उसके बालों में हाथ फेरकर बोली —
“ठीक है बेटा, जा। मगर याद रखना, चाहे कितनी भी ऊँचाई छू लो, पेड़ की जड़ें हमेशा ज़मीन में होती हैं।”

अंकित चुप हो गया, लेकिन उसके दिल में ख्वाहिशें अब गाँव की सीमाओं को तोड़ने लगी थीं।

समय बीता। अंकित कॉलेज के लिए शहर चला गया। गाँव से जाते वक्त माँ ने उसके बैग में अपने हाथों से सिला छोटा ताबीज रख दिया।
“ये तुझे हर मुश्किल से बचाएगा बेटा।”

अंकित ने बिना देखे बैग बंद कर लिया। उसे लगा माँ की बातें बस पुराने ज़माने की अंधविश्वास भरी बातें हैं।

शहर का संघर्ष और किशोरों की सोच

दोस्तों से तुलना और सोशल प्रेशर

शहर में कदम रखते ही उसके सामने एक नई दुनिया थी। चमकती गाड़ियाँ, ऊँची इमारतें, फैशनेबल लोग—उसे लगा यही असली ज़िंदगी है।

लेकिन इस चमक के बीच संघर्ष भी था। किराए का छोटा कमरा, सस्ती कैन्टीन का खाना, और कॉलेज की फीस का बोझ। अंकित को माँ पर गुस्सा आता—

“अगर माँ ने मुझे अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता, तो आज मैं बड़े कॉलेज में होता… अच्छे दोस्तों के साथ। उसने मुझे हमेशा रोका।”
कभी-कभी दोस्तों से तुलना करते हुए वह सोचता—“सबके पास ब्रांडेड कपड़े हैं, घूमने-फिरने के पैसे हैं, और मैं हर बार कंगाल की तरह जीता हूँ। अगर माँ थोड़ी समझदार होती, तो मुझे ये दिन न देखने पड़ते।
उसके अंदर कड़वाहट इतनी गहरी हो गई थी कि अब माँ की याद आते ही उसे बस शिकायतें याद आतीं।

शिकायतों की बाढ़

रात को माँ से फोन पर बात होती तो हर बार तकरार हो जाती।

“माँ, मैंने आपसे कितनी बार कहा नया फोन चाहिए। दोस्तों के सामने मुझे शर्म आती है।”
“बेटा, अभी पैसे की थोड़ी तंगी है। अगली बार देखेंगे।”

“आप हमेशा यही कहती हैं। कभी सोचिए, मैंने अपनी ज़िंदगी में क्या पाया? बचपन से ही सब कुछ कमी में रहा। कभी अच्छे कपड़े नहीं, कभी अच्छे खिलौने नहीं, और अब कॉलेज में भी वही हाल।”

माँ चुप रहतीं। कभी कहतीं—
“बेटा, ज़रूरी नहीं कि हर चीज़ पैसे से खरीदी जाए।”
लेकिन अंकित को लगता कि माँ बस बहाने बना रही हैं।

बेटे के कड़वे शब्द

कई महीनों बाद जब अंकित गाँव लौटा, तो माँ ने उसे खुशी से गले लगाया। मगर अंकित ने झटके से हाथ छुड़ा लिया।
“माँ, आपको पता है? आजकल के ज़माने में लोग कहाँ पहुँच रहे हैं… और मैं कहाँ अटका हुआ हूँ। पता है क्यों? क्योंकि आपने मुझे कभी बड़े सपने देखने ही नहीं दिए। आप तो हमेशा यही कहती रहीं— ‘बेटा, ज़्यादा मत सोच, जितना है उसमें खुश रह।’सुमित्रा चौंकी, बोली— “बेटा, मैंने तो तुझे हमेशा मेहनत सिखाई।”
अंकित ने ग़ुस्से से कहा “मेहनत? माँ, मेहनत से ही सब मिलता होता तो गरीब कभी गरीब न रहता! आपने मुझे अच्छे स्कूल में क्यों नहीं भेजा?

जब दोस्तों के पास मोबाइल थे, तब मेरे पास पुरानी किताबें थीं। आप हमेशा कहती थीं पैसे नहीं हैं… लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि एक बच्चा कैसा महसूस करता है जब उसे सबके सामने छोटा समझा जाए?
उसकी आँखों में शिकायत थी, लहजे में तल्ख़ी। “आज मैं जो कुछ भी हूँ, अपनी मेहनत और जद्दोजहद से हूँ। आपके पास तो सिर्फ़ आँसू और मजबूरियाँ थीं, जिन्हें आपने मेरी ज़िंदगी में बोझ की तरह डाल दिया।”

ये शब्द सुमित्रा के दिल में तीर की तरह धँस गए।उसके होंठ काँपे, मगर बस इतना ही कह पाई—“अगर तुझे लगता है बेटा, तो ठीक है। माँ तो तेरे खिलाफ़ कभी खड़ी नहीं हो सकती।”

उस रात सुमित्रा छत पर आसमान की ओर देखती रही। तारे धुंधले हो गए थे आँसुओं की नमी में।

पढ़ाई, नौकरी और आत्मविश्वास का झटका

शहर में अंकित के दिन अच्छे गुज़रे। नई नौकरी, नए दोस्त, नया मकान। उसे लगा अब वही उसकी असली ज़िंदगी है।
पर धीरे-धीरे हालात बदले।
कंपनी का काम डगमगाने लगा। एक दिन अचानक छंटनी हुई और अंकित बेरोज़गार हो गया।

दोस्तों ने कहा — “यार, हम भी व्यस्त हैं।”
रिश्तेदारों ने फ़ोन उठाना छोड़ दिया।

अंकित का आत्मविश्वास टूटने लगा। किराया भरने तक के पैसे नहीं बचे। कई रातें वो भूखे पेट बिता देता।

अंकित की गिरती हालत

कुछ महीनों तक अंकित ने पार्ट-टाइम नौकरी की, लेकिन पढ़ाई और काम का बोझ उसे थका देता। धीरे-धीरे उसका स्वास्थ्य गिरने लगा।
एक शाम क्लास से लौटते वक्त उसे चक्कर आ गया। आँखें धुंधली हो गईं और वह सड़क किनारे गिर पड़ा।

जब होश आया तो वह हॉस्टल के बिस्तर पर था। बगल में दवा रखी थी, और टेबल पर एक थाली में घर जैसा बना गरम खाना रखा था।

अंकित हैरान हुआ—
“ये किसने लाकर रखा? मेरे तो यहाँ कोई करीबी दोस्त भी नहीं।”

दो-तीन दिन यही सिलसिला चलता रहा। हर बार जब वह थककर लौटता, कमरे में सादा मगर स्वादिष्ट खाना रखा मिलता। दवा की बोतल बदल जाती। यहाँ तक कि एक दिन हॉस्टल मालिक ने आकर कहा—
“तुम्हारा पिछले महीने का बिल चुका दिया गया है। कोई सज्जन आकर पैसे देकर चले गए।”

अंकित का मन उलझ गया।
“कौन है ये रहस्यमयी इंसान? कौन मेरी इतनी मदद कर रहा है? शायद कॉलेज का कोई प्रोफेसर? या कोई दयालु पड़ोसी?”

वह बार-बार सोचता, लेकिन जवाब नहीं मिलता।

अंदर की लड़ाई

इन दिनों अंकित के भीतर अजीब-सी कश्मकश थी।
एक ओर उसे लगता, शायद अब भी इस दुनिया में भले लोग हैं।
दूसरी ओर उसे याद आता माँ—
“काश मेरी माँ भी ऐसे समझदार होती, तो मैं संघर्ष न करता।”

उसके शब्द, उसकी सोच, सब माँ के खिलाफ़ भरे हुए थे।
वह दोस्तों से कहता—
“गाँव की ज़िंदगी ने मुझे बस पीछे खींचा। अगर मेरी परवरिश शहर में होती, तो मैं आज बहुत आगे होता।”

दोस्त उसकी बातें सुनकर चुप हो जाते। कोई तर्क नहीं करता, लेकिन अंकित की आवाज़ में दर्द और गुस्सा दोनों झलकते।

एक दिन उसकी तबियत अचानक फिर से बिगड़ गई। तेज़ बुखार में काँपते हुए उसने आँखें खोलीं। सामने एक छाया-सी दिखी, जो उसके माथे पर भीगी पट्टी रख रही थी।

अंकित ने आधे होश में बुदबुदाया—
“आप… कौन?”

वो छाया चुप रही, बस आँचल से पसीना पोंछती रही।
सुबह जब उसकी आँख खुली, तो बगल में वही खाना और दवा रखी थी। लेकिन इस बार खाने की थाली के नीचे एक छोटा-सा कागज़ दबा था।

काँपते हाथों से अंकित ने कागज़ खोला।
उसमें लिखा था—
“बेटा, माएँ कभी दूर नहीं होतीं। चाहे तू जितनी शिकायत करे, माँ की दुआएँ तेरे पीछे चलती रहती हैं।”

अंकित की आँखें फटी रह गईं। लिखावट पहचान में आने में समय नहीं लगा—ये उसकी माँ की ही लिखावट थी।

सच्चाई का खुलासा और माँ बेटे का भावनात्मक मिलन

शाम को उसने हॉस्टल मालिक से पूछा—
“वो कौन थी… जो मेरा बिल चुकाती रही?”

हॉस्टल मालिक बोला—
“तेरी माँ ही तो आती थी। हर हफ़्ते चुपचाप पैसे देती, तेरे कमरे की सफाई कर जाती, खाना रखकर चली जाती। कहती थी— ‘उसे मत बताना कि मैं आई थी।’”

अंकित का दिल जैसे किसी ने निचोड़ दिया हो। उसकी सारी शिकायतें, सारी नाराज़गी, सब एक पल में बर्फ़ की तरह पिघल गईं। उसे अपने शब्द याद आने लगे—
“आपने मुझे कुछ नहीं दिया… आप ही मेरी पिछड़न की वजह हो…”

वो ज़मीन पर बैठ गया। आँखों से आँसू बहने लगे।
“माँ… मैं कितना गलत था। आपने कभी मुझे छोड़ा ही नहीं, बस मैं ही आपको नहीं समझ पाया।”

अगले ही दिन अंकित भागता हुआ गाँव पहुँचा। माँ आँगन में तुलसी को पानी दे रही थी।
अंकित उनके पैरों पर गिर पड़ा—
“माँ… माफ़ कर दो। मैंने बहुत गलत कहा था। मैं अंधा था, आपकी ममता को समझ ही नहीं पाया।”

सुमित्रा ने उसे गले से लगा लिया।
“बेटा, माँ को शिकायत करने का हक़ नहीं होता। माँ तो बस तेरे लिए जीती है।”

दोनों देर तक रोते रहे। आँगन की मिट्टी आँसुओं से भीग गई, लेकिन उन आँसुओं में शिकायत नहीं थी—सिर्फ़ प्यार था।

अंकित ने उस दिन महसूस किया कि दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त माँ का प्यार और उसका त्याग है।
जिसे वह अब तक “कमज़ोरी” और “पिछड़न” समझता था, वही उसकी सबसे बड़ी पूँजी थी।

उसकी आँखों से आँसू बहते रहे और दिल ने कहा—
“माँ ही मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। माँ ने जो दिया, उसे कोई और नहीं दे सकता। अब मैं माँ का सिर कभी झुकने नहीं दूँगा।”

उस दिन से अंकित की सोच बदल गई। उसने ठान लिया कि पढ़ाई में मेहनत करेगा, सही रास्ता चुनेगा और माँ को गर्व महसूस कराएगा।

यह प्रेरणादायक हिंदी कहानी (prernadayak kahani in hindi) हमें यह सिखाती है कि माँ का प्यार और बलिदान ही जीवन की असली दौलत है।
हर बच्चे को चाहिए कि वह शिकायत करने के बजाय अपनी माँ की क़द्र करे और उसे अपनी सबसे बड़ी ताक़त बनाए।

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