रक्षाबंधन, एक ऐसा त्यौहार जो केवल राखी बांधने की रस्म नहीं, बल्कि विश्वास, प्रेम और सुरक्षा के अनमोल वादे का प्रतीक है। यह पर्व हर साल श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, जब बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है और वह भाई उसकी आजीवन रक्षा का वचन देता है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि रक्षाबंधन की यह परंपरा शुरू कहाँ से हुई?
क्या यह केवल भाई-बहन तक सीमित है?
हमारे पवित्र ग्रंथों, पुराणों और इतिहास में रक्षाबंधन से जुड़ी कई ऐसी कथाएँ हैं, जो इसे एक धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व बना देती हैं।
चलिए आज जानते हैं रक्षाबंधन की उन प्रेरणादायक कहानियों को जो सदियों से हमारी संस्कृति में जीवित हैं।
1. श्रीकृष्ण और द्रौपदी की राखी – वचन की अमरता – Raksha Bandhan Story
एक बार की बात है, जब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया। यह घटना उस समय की है जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को अपमानित करने का प्रयास किया, पर जब उसने सारी सीमाएं लांघ दीं, तो श्रीकृष्ण ने उसे अपने सुदर्शन चक्र से मार दिया।
जब उन्होंने चक्र चलाया, तो उनकी अंगुली थोड़ी सी कट गई और रक्त बहने लगा।
वहां उपस्थित सभी लोग स्तब्ध रह गए, लेकिन द्रौपदी ने बिना एक क्षण गंवाए अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़ा और श्रीकृष्ण की उंगली पर बांध दिया। यह द्रौपदी का स्नेह और चिंता थी जिसने उसे यह कार्य करने को प्रेरित किया।
श्रीकृष्ण भावुक हो गए। उन्होंने द्रौपदी की ओर देखा और कहा:
“हे सखी, तूने आज मुझे सच्चे प्रेम और अपनत्व का उपहार दिया है। मैं वचन देता हूँ, जब भी तू संकट में होगी, मैं तुझे अवश्य बचाऊंगा।”
यह राखी नहीं थी, पर उस साड़ी के टुकड़े ने भाई-बहन जैसे रिश्ते की नींव रख दी थी।
वर्षों बाद जब कौरव द्रौपदी का चीरहरण करते हैं, तब श्रीकृष्ण यही वादा निभाते हैं।
समय बीतता गया… और वह भयानक दिन आया जब कौरवों ने जुए में पांडवों को हरा दिया। द्रौपदी को सभा में घसीटा गया। दुर्योधन ने भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण करने का आदेश दिया।
द्रौपदी रोती रही, पुकारती रही – सभा के सभी योद्धा मौन थे। तब द्रौपदी ने अपने रक्षक श्रीकृष्ण को याद किया।
उसने दोनों हाथ उठाकर प्रार्थना की –
“हे माधव! हे द्वारिकाधीश! मेरी लाज की रक्षा करो!”
और तभी चमत्कार हुआ – जैसे ही दु:शासन उनका वस्त्र खींचता गया, साड़ी बढ़ती गई, बढ़ती ही गई।
श्रीकृष्ण ने अपनी माया से अनंत वस्त्र प्रदान कर द्रौपदी की लाज बचाई।
द्रौपदी ने जो साड़ी का टुकड़ा श्रीकृष्ण को बांधा था, वही एक राखी का प्रतीक बन गया –
रक्षा का, स्नेह का, और निर्बल की सहारा बनने वाले बलवान का।
राखी का यही भाव है –
नारी के सम्मान की रक्षा,
बिना किसी स्वार्थ के प्रेम,
और संकट में साथ निभाने का वचन।
यह कथा रक्षाबंधन के सबसे प्रसिद्ध पौराणिक प्रसंगों में से एक है।
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2. इंद्राणी और इंद्र – रक्षा-सूत्र की शक्ति
बहुत प्राचीन समय की बात है। भविष्य पुराण के अनुसार, त्रिलोक के स्वामी देवता इंद्र और उनकी पत्नी इंद्राणी (शाची देवी) स्वर्ग में निवास करते थे। उस समय असुरों और देवताओं के बीच भीषण युद्ध चल रहा था। असुरों के राजा वृत्रासुर के नेतृत्व में असुरों की सेना बहुत शक्तिशाली हो चुकी थी।
एक युद्ध में देवता इंद्र बुरी तरह पराजित हो गए। उनका आत्मबल कमजोर पड़ गया, सेना हतोत्साहित थी, और स्वर्ग का भविष्य संकट में था।
देवराज इंद्र युद्धभूमि से लौटे और अत्यंत दुखी होकर अपने महल में बैठ गए। उनका तेज मंद पड़ने लगा था। उन्होंने शस्त्र भी त्याग दिए और हार मान लेने का संकेत दिया।
देवी इंद्राणी यह सब देख रही थीं — वह अपने पति का दुख सह नहीं पा रही थीं।
श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। उस दिन ब्रह्मा जी के पास इंद्राणी पहुँचीं और उनसे कोई उपाय जानने की प्रार्थना की।
ब्रह्मा जी ने कहा —
“यदि तुम इंद्र की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधो, और मन से उनकी रक्षा की प्रार्थना करो, तो उन्हें शक्ति और विजय प्राप्त होगी।”
इंद्राणी ने वैसा ही किया।
उन्होंने एक पवित्र सूत्र, मंत्रों से अभिमंत्रित करके, इंद्र की दाहिनी कलाई पर बाँध दिया। यह राखी नहीं केवल धागा था — यह था प्रार्थना, आस्था और विश्वास का सूत्र।
रक्षा-सूत्र बाँधने के बाद इंद्र का आत्मविश्वास लौट आया। उन्होंने फिर से युद्धभूमि में प्रवेश किया — इस बार मन और आत्मा से बलवान होकर।
भीषण युद्ध हुआ, और अंततः देवताओं ने असुरों को पराजित किया। इंद्र ने वृत्रासुर को परास्त किया और स्वर्ग पुनः सुरक्षित हो गया।
उस दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षा-सूत्र बांधने की परंपरा आरंभ हुई।
यह पर्व बाद में भाई-बहन के स्नेह और सुरक्षा के प्रतीक के रूप में विकसित हो गया।
रक्षा बंधन से जुडी इस पौराणिक कथा से क्या सीख मिलती है?
🔹 राखी केवल एक बहन द्वारा भाई को बाँधी गई डोरी नहीं है — यह विश्वास और आत्मबल की शक्ति है।
🔹 जब कोई अपने प्रिय की रक्षा के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करता है, तो वह उसकी सबसे बड़ी शक्ति बन जाती है।
🔹 रक्षाबंधन का यह पर्व ईश्वर, शक्ति और आत्मबल की भी प्रतीक है — जो हर रिश्ते को और मजबूत करता है।
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3. वामन भगवान, राजा बलि और माता लक्ष्मी – श्रद्धा का धागा
बहुत प्राचीन समय की बात है। असुरों के पराक्रमी राजा महाबली (राजा बलि) अपनी शक्ति, दानशीलता और भक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। वे भगवान विष्णु के परम भक्त भी थे। लेकिन उनके पराक्रम से स्वर्गलोक के देवता भयभीत हो उठे थे — क्योंकि राजा बलि ने स्वर्गलोक तक अपना अधिकार फैला लिया था।
देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की।
भगवान विष्णु ने असुरों को युद्ध में हराने के बजाय एक अलग उपाय चुना। उन्होंने वामन अवतार लिया — एक छोटे से ब्राह्मण बालक का रूप।
राजा बलि उस समय विश्वविजयी यज्ञ कर रहे थे, जिसमें वह ब्राह्मणों को इच्छानुसार दान दे रहे थे।
वामन भगवान ने बलि के पास जाकर कहा —
“मुझे दान में केवल तीन पग भूमि दीजिए।”
राजा बलि हँस पड़े — “इतनी सी मांग? तीन पग भूमि? मैं तो राज्य दे दूँ!”
उन्होंने वचन दे दिया।
जैसे ही बलि ने वचन दिया, वामन भगवान विशाल रूप में प्रकट हो गए।
पहले पग में उन्होंने पृथ्वी नाप ली,
दूसरे पग में स्वर्गलोक को ढँक दिया,
अब तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं बचा।
राजा बलि ने झुककर कहा —
“भगवान, तीसरा पग आप मेरे सिर पर रखिए।”
भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया। राजा बलि ने उन्हें पाताल में अपने साथ रहने का आग्रह किया। उसका वचन निभाने के लिए भगवान विष्णु स्वयं उसके साथ पाताल लोक चले गए।
भगवान विष्णु के पाताल लोक चले जाने से देवी लक्ष्मी चिंतित हो उठीं। वह उन्हें वापिस लाना चाहती थीं, पर सीधे राजा बलि से कुछ माँगना उचित नहीं था।
तब उन्होंने एक ब्राह्मणी स्त्री का रूप धारण किया और राजा बलि के महल में गईं — श्रावण पूर्णिमा के दिन।
उन्होंने राजा बलि की कलाई पर एक राखी बाँधी और कहा,
“मैं आपको अपना भाई मानती हूँ। कृपया अपनी बहन को कुछ भेंट दीजिए।”
राजा बलि ने भावुक होकर कहा,
“जो चाहो मांगो, बहन।”
तब लक्ष्मीजी ने कहा —
“मैं चाहती हूँ कि मेरे पति विष्णु मेरे पास लौट आएं।”
राजा बलि स्तब्ध रह गए। उन्होंने तुरंत भगवान विष्णु को वापस लक्ष्मी जी के साथ वैकुण्ठ जाने की अनुमति दे दी।
इस घटना के बाद से श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन मनाया जाने लगा।
यह केवल भाई-बहन का पर्व नहीं रहा, बल्कि विश्वास, वचन, और समर्पण का भी प्रतीक बन गया।
✅ राखी केवल एक धागा नहीं, रक्षा का वचन है।
✅ यह पर्व विश्वास और स्नेह का उत्सव है, जो रक्त-संबंध से भी ऊपर उठकर आत्मीयता के रिश्ते बनाता है।
✅ देवी लक्ष्मी की तरह हर बहन अपने भाई पर भरोसा करती है कि वह उसकी रक्षा करेगा — हर परिस्थिति में।
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4. सुभद्रा और बलराम – बहन के सम्मान की रक्षा
बहुत समय पहले की बात है। द्वारका नगरी अपनी समृद्धि और वैभव के लिए प्रसिद्ध थी। वहां के राजा श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम के साथ रहती थी उनकी प्रिय बहन — सुभद्रा।
सुभद्रा सुंदर, बुद्धिमान और बहुत ही प्रिय थी — विशेषकर अपने बड़े भाई बलराम को। वह सुभद्रा को अपनी आंखों का तारा मानते थे। उनके लिए सुभद्रा की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं था।
पर एक दिन, वह समय आया जिसने इस भाई-बहन के रिश्ते की परख ली।
सुभद्रा का मन आकर्षित हुआ था — पांडवों के वीर योद्धा अर्जुन की ओर। अर्जुन भी सुभद्रा के गुणों से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे दोनों के बीच प्रेम पनपने लगा। परन्तु यह प्रेम सरल नहीं था।
बलराम ने सुभद्रा का विवाह कौरव पक्ष के किसी राजकुमार से तय कर दिया था, जो एक राजनैतिक निर्णय था। अर्जुन और सुभद्रा को पता था कि यह प्रेम बलराम की इच्छा के विरुद्ध है।
सुभद्रा चिंतित थीं। एक ओर भाई का सम्मान, दूसरी ओर अपना हृदय। फिर श्रावण मास की पूर्णिमा आई — रक्षाबंधन का दिन।
उस दिन सुभद्रा ने एक राखी लेकर बलराम के पास गईं। भाई की कलाई पर वह धागा बाँधते हुए उन्होंने नम्रता से कहा: “भैया, आप मेरे रक्षक हैं। मैं आपसे कुछ नहीं छुपाऊँगी। मैं अर्जुन से प्रेम करती हूँ। अगर आप सच में मेरे रक्षक हैं, तो मेरी इच्छा का सम्मान कीजिए।”
बलराम चकित रह गए। उनके कठोर हृदय में उस राखी की डोर ने भावनाओं की बाढ़ ला दी। उन्होंने बहन की आँखों में आंसू देखे और अपने क्रोध को शांत किया।
बलराम ने गहराई से सोचा… और फिर धीरे से कहा:
“अगर यह तुम्हारा हृदय है, सुभद्रा, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ। एक भाई का धर्म बहन की रक्षा करना है — उसकी आत्मा की भी।”
बलराम ने अर्जुन को द्वारका बुलाया। विवाह को स्वीकार किया और स्वयं बहन को डोली में बिठाकर विदा किया — आशीर्वाद के साथ।
इस प्रकार राखी का वह धागा सिर्फ एक परंपरा नहीं, भावना और रिश्ते की शक्ति बन गया।
इस कहानी से हमें ये संदेश मिलता है की –
“राखी सिर्फ एक धागा नहीं, बहन के विश्वास और भाई की जिम्मेदारी का प्रतीक है।
जब बहन अपने दिल की बात कहे, तो भाई उसका सबसे बड़ा सहारा बनता है।”
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5. रानी कर्णावती और हुमायूं – इतिहास की राखी
इतिहास गवाह है कि राखी केवल धार्मिक परंपरा नहीं, एक राजनीतिक और भावनात्मक ताकत भी रही है।
बहुत समय पहले की बात है। मेवाड़ की भूमि पर वीरता और शौर्य की कहानियाँ हर दिशा में गूंजा करती थीं। यही भूमि थी जहाँ राणा सांगा ने विदेशी आक्रांताओं से युद्ध लड़ा था। लेकिन अब वह वीर योद्धा इस संसार में नहीं था। उनके बाद शासन की बागडोर संभाली उनकी रानी — रानी कर्णावती ने।
रानी अकेली थीं, लेकिन कमजोर नहीं थीं। उनके हृदय में अपने राज्य, अपने प्रजा और अपने बेटे राजकुमार विक्रमादित्य के लिए अग्नि सी ममता थी। लेकिन समय अच्छा नहीं था। दूर गुजरात में बैठा सुल्तान बहादुर शाह मेवाड़ की ओर आँखें गड़ा चुका था। वह जानता था कि अब किला कमज़ोर है, रानी अकेली है, और यही हमला करने का सही मौका है।
एक दिन सन्देश आया — बहादुर शाह ने चित्तौड़ की ओर कूच कर दिया था। संकट सिर पर था।
रानी कर्णावती को समझ में आ गया कि इस बार युद्ध से राज्य को बचाना कठिन है। सेनाएँ सीमित थीं, और राज्य चारों ओर से घिर चुका था। लेकिन रानी ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक अद्भुत निर्णय लिया — दिल्ली के मुग़ल सम्राट हुमायूं को एक पत्र लिखा।
उस पत्र के साथ उन्होंने एक राखी भी भेजी — एक ऐसी डोर, जो बहन अपने भाई की कलाई पर बांधती है, यह विश्वास दिलाने के लिए कि “अब मेरी रक्षा तेरे हाथों में है।”
हुमायूं, जो खुद उस समय अपने एक युद्ध में व्यस्त था, जब उसने राखी और पत्र देखा, तो उसका दिल पिघल गया। वह जान गया कि यह कोई सामान्य याचना नहीं थी — यह एक बहन की पुकार थी, और उसकी रक्षा अब उसका धर्म बन चुका था।
हुमायूं ने तत्काल अपने सेनापतियों को आदेश दिया और चित्तौड़ की ओर कूच कर दिया। उसे कोई युद्ध, कोई रणनीति, कोई विरोध रोक नहीं पाया। वह रफ्तार से मेवाड़ की ओर बढ़ा — एक भाई अपनी बहन की रक्षा के लिए।
लेकिन जब वह चित्तौड़ पहुँचा…
बहादुर शाह की सेना पहले ही किला भेद चुकी थी। रानी कर्णावती ने यह देखकर कि अब युद्ध में हार निश्चित है — जौहर करने का निर्णय लिया।
कई अन्य राजपूत महिलाओं के साथ, रानी ने अग्नि कुंड में प्रवेश किया — अपने आत्मसम्मान और मर्यादा की रक्षा के लिए।
हुमायूं ने जब यह दृश्य देखा, वह स्तब्ध रह गया। वह राखी को अपनी हथेली में भींचे हुए चुपचाप खड़ा रहा… बहन तो अब इस संसार में नहीं थी, लेकिन राखी की डोर ने उसे जीवन भर बाँध लिया।
उस दिन राखी सिर्फ एक धागा नहीं रही। वह बन गई — सम्मान, समर्पण, और रक्षक के धर्म की अमर मिसाल।
रानी कर्णावती और हुमायूं की यह कहानी आज भी हमें याद दिलाती है कि:
“रिश्ते केवल खून से नहीं, भावनाओं और विश्वास से भी बनते हैं।”
तो यह थीं रक्षाबंधन से जुड़ी कुछ अनमोल पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियाँ
हर कथा हमें एक ही बात सिखाती है —
रक्षाबंधन केवल धागा नहीं, यह रिश्तों की रक्षा, सम्मान और श्रद्धा का वचन है।
क्या आपके जीवन में भी रक्षाबंधन से जुड़ी कोई ख़ास याद या कहानी है?
शायद एक राखी ने आपको भावुक कर दिया हो, या आपने किसी को भाई मानकर उसे राखी बाँधी हो?
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कौन जाने, आपकी कहानी किसी और को मुस्कुराने का कारण दे दे! 😊
रक्षाबंधन की ढेर सारी शुभकामनाएँ!
आपके रिश्तों में हमेशा ऐसा ही स्नेह, विश्वास और प्रेम बना रहे।
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Raksha Bandhan 2025 की तारीख और शुभ मुहूर्त
– तारीख: शनिवार, 9 अगस्त 2025
– श्रावण पूर्णिमा प्रारंभ: 8 अगस्त 2025 को दोपहर 02:12 PM से
– श्रावण पूर्णिमा समाप्त: 9 अगस्त 2025 को दोपहर 01:24 PM तक
– राखी बांधने का शुभ मुहूर्त: 9 अगस्त को सुबह 05:47 AM से दोपहर 01:24 PM तक
– भद्रा काल: सुबह 05:47 AM से पहले रहेगा — इसलिए उसके बाद राखी बांधना शुभ है।