मुंबई का एक भला चोर – एक प्रेरणादायक नैतिक कहानी

मुंबई – सपनों का शहर। यहाँ हर कोई अपने सपनों को हकीकत बनाने आता है। ऊँची-ऊँची इमारतें, भागती ट्रेनों की आवाज़, चौराहों की चिल्ल-पुकार और लाखों दिलों की उम्मीदें… इन्हीं के बीच एक युवक आया था – प्रदीप

प्रदीप एक छोटे शहर – भागलपुर- का रहने वाला था – पढ़ा-लिखा, समझदार और संस्कारी। उसने अच्छे अंकों से स्नातक की पढ़ाई की थी और अब वह मुंबई में नौकरी की तलाश में आया था। उसके मन में बस एक ही सपना था – एक अच्छी नौकरी, इज़्ज़त की ज़िंदगी और अपने बूढ़े माता-पिता का सहारा बनना। उसके छोटे शहर भागलपुर में उसके माँ बाप इस उम्मीद में थे के उनका लड़का एक दिन अच्छी नौकरी हासिल करेगा और उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा!

एक कुंद सी बदबूदार झोपड़पट्टी में उसे रहने के लिए एक कमरा किराये पर मिल गया। मगर उसने सोचा के , ‘आखिर यहाँ रहना ही कितने दिन है? जल्द ही कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाएगी तो सारी  समस्याएं दूर हो जाएगी। फिर किसी अच्छी जगह पर मकान ले कर अपने माता पिता को भी मुंबई बुला लूंगा। ‘

कितनी छोटी और सीधी साधी ख्वाहिशे थी उसकी ! मगर किस्मत को शायद ये मंजूर न था …

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मुंबई का जीवन आसान नहीं था। शुरू-शुरू में प्रदीप ने छोटे-छोटे दफ्तरों में आवेदन दिए, इंटरव्यू दिए, पर हर जगह से बस एक ही जवाब मिला – “अभी कोई जगह नहीं है”, “आपका अनुभव नहीं है”, या फिर “हम आपको कॉल करेंगे”।

हर दिन प्रदीप के आत्मविश्वास को थोड़ा-थोड़ा करके तोड़ता गया। एक दिन वह एक प्रतिष्ठित कंपनी के इंटरव्यू में पहुँचा। वहाँ उसने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। लेकिन परिणाम आने पर पता चला कि किसी “जान-पहचान” वाले को वह पद मिल गया।

प्रदीप ने हार नहीं मानी। दिन भर नौकरी की तलाश में भटकता और रात को सस्ते से लॉज में सो जाता। पैसे धीरे-धीरे खत्म होने लगे। खाना भी मुश्किल हो गया। लोग ताने देने लगे – “इतने पढ़े-लिखे हो कर भी कुछ कर नहीं पा रहे हो?”

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एक दिन, भूख और बेबसी में डूबा प्रदीप एक सुनसान गली से गुजर रहा था। जेब के सरे पैसे ख़त्म हो गए थे और कल का दिन कैसे गुजरेगा ये पता नहीं था।

वहीं एक बुज़ुर्ग सब्ज़ीवाले को देखा जो अपनी दुकान समेट रहा था। उसके पास एक थैला था जिसमें दिन भर की कमाई थी। तभी प्रदीप के मन में एक अजीब विचार आया – “अगर मैं ये थैला चुपचाप ले लूँ, तो कुछ दिन का गुज़ारा हो सकता है…”

प्रदीप पहले खुद से लड़ा। पर भूख और हताशा ने उस पर जीत हासिल कर ली। जैसे ही बुज़ुर्ग ने पीठ घुमाई, प्रदीप ने थैला उठाया और भाग गया। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। वह एक खाली बिल्डिंग के कोने में जाकर थैला खोला – उसमें करीब 900 रुपये थे।

पर जैसे ही उसने वह पैसे हाथ में लिए, उसे बुज़ुर्ग की थकी हुई आँखें याद आईं। उनकी काँपती हुई उंगलियाँ, और दिन भर की मेहनत।

“ये पैसे तो उनके खून-पसीने की कमाई है,” प्रदीप ने खुद से कहा।

उसका दिल भर आया। आँखों में आँसू आ गए। क्या ये वही प्रदीप था जिसने अपनी माँ से वादा किया था कि वह कभी गलत रास्ता नहीं अपनाएगा?

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वह रात उसे सोने नहीं दी। सुबह होते ही वह फिर उसी गली में गया। बुज़ुर्ग अब भी वहीं बैठे थे, पर उदास थे। जैसे किसी ने उनका सब कुछ छीन लिया हो।

प्रदीप उनके पास गया, थैला आगे बढ़ाया और कहा, “बाबा, ये आपका है। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मुझे माफ़ कर दीजिए।”

बुज़ुर्ग चौंक गए। पहले तो कुछ बोल नहीं पाए, फिर उन्होंने कहा, “बेटा, तेरा चेहरा देख के लगता नहीं कि तू चोर है। तेरा दिल साफ है। भगवान तुझे रास्ता दिखाए।”

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उस दिन से प्रदीप ने चोरी से तौबा कर ली। उसने ठान लिया कि चाहे जितनी भी मुश्किल आए, वह मेहनत करेगा, लेकिन गलत रास्ते पर नहीं जाएगा।

अगले दिन उसने एक लोकल अखबार वाली की दुकान पर जाकर काम माँगा।

दूकानदार अपने काम में व्यस्त था।

पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर उसने सोचा के इस नौ जवान को काम दे ही देते हैं।

अब प्रदीप हर दिन एक अख़बार बेचने वाले के साथ सुबह अख़बार बाँटता, दोपहर में छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता और शाम को एक चाय की दुकान में काम करता।

धीरे-धीरे उसने कुछ पैसे बचाए। फिर उसने इंटरनेट पर फ्री कोर्स किए, कंप्यूटर सीखा, और नई तकनीकों के बारे में पढ़ा।

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छह महीने बाद, एक दिन एक ऑनलाइन जॉब पोर्टल पर एक स्टार्टअप कंपनी की जॉब वैकेंसी देखी। प्रदीप ने आवेदन किया। इंटरव्यू लिया गया और इस बार उसके हुनर और मेहनत को सराहा गया।

“आपकी ईमानदारी और आत्मसंघर्ष हमें पसंद आया,” मैनेजर ने कहा।

प्रदीप को पहली नौकरी मिली – छोटी तनख्वाह लेकिन इज़्ज़त से। वह खुश था। उसके चेहरे पर अब आत्मविश्वास था।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, प्रदीप ने अपने जीवन को स्थिर कर लिया। उसने वह लॉज छोड़ दिया और एक छोटा कमरा किराए पर लिया। माँ-बाप को पैसे भेजने लगा। पर उसने अपने अतीत को नहीं भुलाया।

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एक दिन उसने उसी बुज़ुर्ग सब्ज़ीवाले को फिर से खोजा और उन्हें हर हफ्ते मुफ्त सब्ज़ियाँ बेचने में मदद करने लगा। वह अपने जैसे गरीब बेरोज़गार युवकों को भी काम ढूंढ़ने में सहायता करने लगा।

वह बच्चों को फ्री में पढ़ाने लगा और उन्हें बताने लगा कि कोई भी हालात तुम्हें गलत राह पर जाने को मजबूर नहीं कर सकते। असली ताक़त होती है अपने दिल की आवाज़ सुनना।

इस कहानी से हमे क्या सिख मिलती हैं ?

यह कहानी उस प्रदीप की है जो कभी परिस्थितियों से हार गया था, लेकिन दिल से अच्छा था। जिसने गलती की, पर समय रहते उसे सुधारा। जिसने ठोकर खाकर चलना सीखा और अंत में समाज का आदर्श नागरिक बना।

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