गाँव का नाम था सीतापुर — शांत, छोटा और परंपराओं में जकड़ा हुआ।
जहाँ लड़कियों के लिए सपने देखना ज़्यादा, और सवाल पूछना गुनाह माना जाता था।
इसी गाँव में एक लड़की रहती थी — आशा।
दुबली-पतली, साँवला चेहरा, आँखों में चमक और हाथ में पुरानी किताबें।
वो दिन में खेतों में काम करती, माँ के साथ घर का सारा काम संभालती,
और शाम होते ही बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाती — अकेली, चुपचाप… लेकिन आँखों में कुछ और ही चल रहा होता था।
गाँव में लोग उस पर हँसते थे।
“लड़की होकर इतनी पढ़ाई? अरे शादी की उम्र निकली जा रही है!”
“इन किताबों से क्या होगा? चूल्हा-चौका ही करना है न अंत में!”
आशा ये सब चुपचाप सुनती। कभी जवाब नहीं देती।
लेकिन हर ताने के बाद वो किताब को और कसकर पकड़ लेती… मानो कह रही हो —
“तुम्हारे शब्द मेरे रास्ते की रुकावट नहीं, मेरी ताक़त बनेंगे।”
गाँव के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे।
किसी के पास जूते नहीं थे, किसी के पास किताबें नहीं।
आशा ने सोचा —
“अगर मैं उनके लिए स्कूल नहीं बन सकती, तो मैं खुद ही स्कूल बन जाऊँ।”
और फिर बरगद के पेड़ के नीचे शुरू हुआ उसका स्कूल।
मिट्टी में खींची गई लाइनों पर गणित सिखाया गया,
टूटे पन्नों पर अक्षर लिखे गए।
उसकी क्लास में ना घंटी थी, ना कुर्सियाँ…
बस दिल से पढ़ाने वाली एक दीदी थी — आशा।
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एक सुबह गाँव के चौक पर ढोलक की थाप के साथ एक सरकारी गाड़ी रुकी।
एक अफसर उतरे और ग्राम प्रधान से कहा —
“तीन दिन बाद ज़िले के शिक्षा अधिकारी गाँव के स्कूल का दौरा करेंगे। तय हो जाए कौन मिलेगा उनसे। फिर ये भी तय होगा के फिर गाँव में स्कूल को सरकारी सहायता मिलेगी या नहीं! ”
ये सुनते ही पूरे गाँव में सनसनी फैल गई।
गाँव का स्कूल पहले से ही बदहाल था, और अब स्कूल मास्टर जी भी तेज़ बुखार में बिस्तर पकड़ चुके थे।
गाँव के बड़े-बुज़ुर्ग चिंता में डूब गए —
“अगर स्कूल बंद कर दिया गया, तो पूरे गाँव की बदनामी होगी! और आस पास के गावों के स्कूलों को अगर सरकारी मदद मिलती रही तो हमारे गाँव का नाम और भी ख़राब हो जायेगा! ”
बैठकें होने लगीं, पंचायत बुलाई गई।
किसी ने मास्टर जी के बेटे का नाम लिया —
“पढ़ा-लिखा है, पर अभी शहर में नौकरी ढूंढ रहा है।”
किसी ने कहा,
“मुखिया जी के भतीजे को भेज दो, कॉलेज में पढ़ता है!”
पर वो तो शहर से आने को तैयार ही नहीं था।
तीन दिन… और कोई तैयार नहीं।
तभी भीड़ के पीछे से एक धीमी आवाज़ आई —
“आशा… वो तो बरगद के नीचे बच्चों को पढ़ाती है ना?”
सबने एक पल को चुप होकर उसकी ओर देखा।
फिर किसी ने ठहाका लगाया —
“अरे! वो लड़की? वो बच्चों से ‘क’ और ‘ख’ लिखवाती है, उसे अधिकारी से क्या बात करनी आएगी?”
“वो तो खुद सरकारी स्कूल में दाखिल नहीं हो सकी थी कभी!”
लेकिन बात वहीं नहीं रुकी।
मुखिया जी ने गंभीर स्वर में कहा —
“जो सामने है, और जो कर रहा है, कभी-कभी वही सबसे लायक होता है।”
आशा को बुलाया गया।
गाँव भर की नजरें उस पर थीं — कुछ में उम्मीद, कुछ में शक, कुछ में जलन, और कुछ अब भी मज़ाक।
आशा सबकी आँखों से देख रही थी —
वो न तो मुस्कराई, न ही डर के पीछे छिपी।
उसने बस माँ की ओर देखा,
जो आँखों में आँसू लिए सिर हिला रही थी।
आशा ने धीरे से कहा —
“मैं कोशिश करूँगी… और इस बार, खुद के लिए नहीं… अपने गाँव के लिए।”
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स्कूल का छोटा कमरा।
चारों ओर खामोशी।
दरवाज़े पर अधिकारी खड़े थे —
कड़क स्वभाव वाले वर्मा साहब।
उनका चेहरा पढ़ना मुश्किल था।
उन्होंने कुर्सी पर बैठते ही पूछा —
“आप पढ़ाती हैं?”
आशा ने सिर झुका कर नमस्ते किया और धीमे स्वर में बोली —
“जी साहब…”
वो घबरा गई थी। गला सूख रहा था।
फ़ाइल उसके हाथ में काँप रही थी।
लेकिन उसने खुद को सँभालने की कोशिश की।
वर्मा साहब ने अगला सवाल ठोक कर किया:
“कक्षा 3 के लिए भाषा और गणित के पाठ्यक्रम के मुख्य बिंदु क्या हैं?”
आशा कुछ पल चुप रही।
फिर बोली —
“साहब, किताब मेरे पास नहीं थी… पर मैंने बच्चों को जोड़-घटाव, कहानी सुनाकर शब्द पहचानना और रोज़मर्रा की चीज़ों से सीखना सिखाया है।”
“मैंने जो खुद सीखा, वही बच्चों को सिखाया।”
साहब ने एक कागज़ उसकी ओर बढ़ाया:
“यह अनुपात (ratio) का सवाल है, समझा सकती हो?”
आशा ने सवाल देखा…
चुप रही।
उसने जवाब नहीं दिया — वो सच में नहीं जानती थी।
उसकी आँखों में थोड़ी शर्म, थोड़ी बेचैनी, लेकिन कोई झूठ नहीं था।
वह बोली —
“माफ कीजिए साहब… ये सवाल मैंने कभी पढ़ा ही नहीं।”
गाँव के कुछ लोग सिर झुकाने लगे।
किसी ने फुसफुसाकर कहा,
“देखा! भेज दिया उसे… अब गाँव की और बदनामी होगी।”
लेकिन वर्मा साहब चुपचाप आशा को देख रहे थे।
फिर आशा ने एक साँस लेकर कहा:
“पर साहब, जब चप्पल नहीं थी, तो बच्चों को नंगे पैर स्कूल लाना सिखाया…
जब किताब नहीं थी, तो मिट्टी पर गणित के सवाल बनवाए…
जब किसी ने भरोसा नहीं किया, तब भी रोज़ पेड़ के नीचे बैठकर उन्हें पढ़ाया…”
मैंने जो नहीं सीखा, वो सिखा नहीं पाई — पर जो सीखा है, वो पूरी ईमानदारी से बाँटा है।”
उसकी आँखों में आँसू थे — शर्म के नहीं, सच्चाई और समर्पण के।
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वर्मा साहब कुर्सी से उठे।
वो वही अधिकारी थे जिनके बारे में कहा जाता था —
“दिल नहीं, सिर्फ़ नियमों से सोचते हैं।”
पर आज वो पहली बार रुके।
उन्होंने आशा से फ़ाइल ली, उसकी डायरी के पन्ने पलटे —
बच्चों की उँगलियों से बने अक्षर, मिट्टी पर बने चित्रों की तस्वीरें, और
बच्चों के लिखे हुए चिट्ठियाँ — “दीदी पढ़ाना मत छोड़ना।”
वर्मा साहब की आँखों में हल्की नमी थी।
उन्होंने कहा —
“आज तक हमने सिखाने की डिग्री देखी… पर आज सिखाने की नीयत देखी है।”
“आपने सवालों के जवाब नहीं दिए — लेकिन आपने मुझे वो दिखाया जो किसी किताब में नहीं होता।”
वर्मा साहब ने कुछ नहीं कहा।
ना कोई तारीफ़, ना कोई वादा।
वो बस चुपचाप फ़ाइल बंद करके उठे… और गाड़ी में बैठकर चले गए।
गाँव वालों ने देखा —
“साहब तो बिना कुछ बोले चले गए… मतलब सब ख़त्म?”
भीड़ में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई।
“हमने तो कहा था लड़की को भेजना ठीक नहीं…”
“अब देखना स्कूल बंद कर देंगे।”
“ये सब नाटक था… साहब को क्या समझ आएगा?”
आशा चुपचाप वहीं स्कूल की दीवार के पास बैठ गई…
वो रो नहीं रही थी, पर उसकी आँखें किसी जवाब का इंतज़ार कर रही थीं।
माँ ने उसका सिर सहलाया और बस इतना कहा —
“सच्चाई देर से जीतती है… लेकिन हारती नहीं।”
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अगले दिन सूरज चढ़ने ही वाला था…
गाँव अभी भी मायूस था… लोग यही मान चुके थे कि स्कूल अब बंद हो जाएगा।
तभी एक बार फिर वही सरकारी गाड़ी स्कूल के सामने आकर रुकी।
दरवाज़ा खुला —
वर्मा साहब खुद उतरकर आए।
पर इस बार उनके हाथ में एक चिट्ठी और फाइल थी।
गाँव वाले चौंक गए।
वो सीधे स्कूल के सामने खड़े हुए और कहा —
“मैं कल जानबूझकर कुछ नहीं बोला… क्योंकि मैं देखना चाहता था कि आप लोग क्या सोचते हैं उस लड़की के बारे में, जो आपके बच्चों को पढ़ा रही है!”
लोग झुके-झुके से खड़े थे।
फिर उन्होंने चिट्ठी हाथ में लेकर ज़ोर से कहा —
“यह सरकारी आदेश है — आशा को ‘राज्य शिक्षा मिशन’ के तहत पूरी हायर एजुकेशन दी जाएगी, फुल स्कॉलरशिप के साथ।”
सन्नाटा छा गया।
फिर वर्मा साहब ने गाँववालों की ओर देखा…
उनकी आवाज़ अब सिर्फ़ नाराज़ नहीं थी — उसमें चेतावनी, पीड़ा और उम्मीद सब कुछ था:
“जिस लड़की ने बिना तालीम का दावा किए, बिना वेतन माँगे, बिना किसी मदद के… इस गाँव के बच्चों को सपनों की भाषा सिखाई… आपने उसी को ताने दिए?
जिसने मिट्टी को किताब बनाया, दीवार को ब्लैकबोर्ड और खुद को शिक्षक… आप उसी की हिम्मत को कमज़ोरी समझ बैठे?
आपने उसकी हिम्मत पर शक किया… और वो चुपचाप आपकी संतानों को रोशनी देती रही।
अगर इस देश को बदला जा सकता है, तो ऐसी बेटियों से ही — जो बिना मंच के भी इतिहास रच देती हैं।”
आशा वहीं खड़ी थी — आँखें नम, पर इस बार डर नहीं…सम्मान था।
बच्चों ने दौड़कर उसे घेर लिया —
“दीदी! आप जा रही हो? हमें छोड़ दोगी?”
आशा ने झुककर बच्चों से कहा:
“नहीं… मैं जा रही हूँ सीखने… ताकि लौटकर तुम्हें और बेहतर सिखा सकूँ।”
गाँव के बुज़ुर्गों ने पहली बार उसे आशीर्वाद दिया।
प्रधान जी ने वर्मा साहब से कहा:
“हमें हमारी भूल का अहसास हो गया है… अब हर लड़की को पढ़ने देंगे।”
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जब समाज चुप हो जाए… तब एक इंसान का सच सबसे बड़ी आवाज़ बनता है।
और जब एक लड़की हिम्मत से खड़ी होती है… तो पूरा गाँव झुक जाता है।
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